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तत्वार्थ श्लोक वार्तिकालंकारे
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लेनी चाहिये। मुनि को दानशाला, विवाहस्यान पूजाघर और क्रोडास्थान, कारागृह, आदि स्थलों पर भिक्षा के परित्याग रखने का पूरा लक्ष्य रखना पडता है । नादीदेपन को प्रवृत्ति से रहित भिक्षा होनी चाहिये । त्रस स्थावर जीवों से रहित प्रातक आहार " प्रगता असवो यस्मात् " के ढूंढने में हो वित्त का ध्यान रक्खा जाय । बढिया पुष्ट, गरिष्ठ, स्वादुभोजन की प्राप्ति का लक्ष्य नहीं रक्खा जाय । शास्त्रविहित मार्ग से निर्दोष हो रहे भोजन की परिप्राप्ति हो जाने से शरीर या प्रारणों की यात्रा बनी रहे मात्र इतना ही भोजन का फल समझा जाय ये सब भिक्षाशुद्धि के लिये करने पड़ते हैं । उस भिक्षाशुद्धि के साथ हो अविनाभाव रख रही चारित्रसम्पत्ति है, जैसे कि साधुजनों की सेवा को कारण मानकर सेवक जनों को गुणों की सम्पत्ति प्राप्त हो जाती है, उसी प्रकार भिक्षाशुद्धि और चरित्रशुद्धि की व्याप्ति बन रहो हैं " यत्र यत्र भिक्षाशुद्धिस्तत्रतत्र चरणसम्पत्तिः "
लाभालाभयोः सुरसविरसयोश्च समसंतोषा भिक्षेति भाष्यते, यथा सलीलसालंकारवरयुवतिभिरुपनीयमानघासो गौर्न तदंगगत सौंदर्य निरीक्षणपरः तृणमेवात्ति थथा वा तृणलवं नानादेशस्थं यथालाभमभ्यवहरति न योजनासंपदमवेक्षते, यथा भिक्षुरपि भिक्षापरिवेषकजन मृदुललितरूपवेषविलासविलोकन निरुत्सुकः शुष्कद्रवाहारयोजनाविशेषं वानपेक्षमाणः यथागतमश्नातीति गौरिव गोर्वाचारो गोचर इति च व्यपदिश्यते तथा गवेषणेति च । भिक्षा का लाभ हो जाने में और भिक्षा का लाभ नहीं होने में समान संतोष रखने वाली तथा सुन्दर रस वाले व्यञ्जनों के खाने में और रसरहित पदार्थों के भक्षण में समान संतोष धार रही वह भिक्षा यों बखानी गई है अथवा लाभ, अलाभ, में नीरस, सरस, में समान संतोष को धारने वाले मुनीन्द्रों ने वह भिक्षा यों बखानी है । ऐसी भिक्षा के गोचार, अक्षम्प्रक्षण, उदराग्निप्रशमन, भ्रामरी, श्वभ्भ्रपूररण ये पाँच भेद हैं । पहिली गोचरी वृत्ति इस प्रकार कि जैसे यौवनलीलाओं और श्रेष्ठ भूषणों से सहित हो रही सुन्दरी युवतियों करके लाया गया है घास जिसके लिये ऐसी गाय उस नवोढा के अगों में प्राप्त हुये सौन्दर्य का निरीक्षण करने में तत्पर नहीं होती हुई केवल तृणों को ही खाने लग जाती है अथवा जिस प्रकार गाय ( गोवलीवर्द न्यायेन बैल भी ) नाना देशों में स्थित हो रहे तृणों के टुकडों को जैसा तैसा तृणलाभ होता जाता है तदनुसार गोचर भूमि में भ्रमण कर केवल खा ही लेती हैं कोई घास की योजना यानी रचनादिन्यास आदि शोभा को नहीं नीचे देखती फिरतो है उसी प्रकार संयमी भिक्षु भी भिक्षा को परोसने वाले स्त्री, पुरुषों के कोमल श्रृंगारोचितचेष्टाओं सुन्दररूप, वेष, ( पहनावा ) विलास ( श्रृंगारोचित चेष्टायें )