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नवमोऽध्यायः
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भूषण शब्द आदि के देखने, निरखने, सुनने में उत्सुक नहीं हो रहा सन्ता तथा सूखे, गीले, आहार की विशेष रचनाओं की नहीं अपेक्षा करता हुआ केवल यथायोग्य प्राप्त ये जैसे भी शुद्ध भोजन को खा लेता है, यों खाने में गाय का सादृश्य हो जाने से गाय के समान मुनि हैं अथवा गौ के समान चार यानी भोजन या भोजन के लिये गमन है " चर गतिभक्षणयोः । इस कारण इस भोजन वृत्ति का नाम " गोचार " इस प्रकार व्यवहार में खाना गया है और तिसी प्रकार गौ के समान भक्ष्य पदार्थ का शोधना ढूंढना होने से " गवेषणा" यों भी कहा दिया जाता है ।
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यथा शकटं रत्नभारपरिपूर्ण येन केनचित् स्नेहेनाक्षलेपनं कृत्वाभिलषितं देशान्तरं वणिग्जनो नयति तथा मुनिर्गुणरत्नभरितां तनुशकटीमनवद्यभिक्षयायुरक्ष क्षणेनाभिप्रेतसमाधिपत्तनं प्रापयतीति अक्षम्ग्रक्षरणमिति च नाम निरूढं ।
मुनि की दूसरी अक्षम्प्रक्षण भोजनवृत्ति ऐसी है कि जिस प्रकार रत्न के बोझ से भरपूर हो रहे छकडा गाडो को व्यापारी वैश्य मनुष्य जिस किसी भी ऐरे गैरे तेल से धुरा आमन का लेप कर अभीष्ट देशान्तरों को ले जाता है तिसी प्रकार मुनि भी गुरणस्वरूप रत्नों से भरी हुई शरीरस्वरूप गाडी को निर्दोष हो रही सरस या नीरस भिक्षा द्वारा आयु:स्वरूप रथांग का तैललेपन करके अभीष्ट हो रहे समाधि नामक नगर ( रत्नों के क्रय विक्रय का शहर ) को प्राप्त करा देता है । इस उपमानोपमेय या रूप्यरूपक अनुसार इस भिक्षा का नाम अक्षम्प्रक्षण इस प्रकार नियम से रूढ हो रहा है । अक्षस्य रथाङ्गस्य प्रक्षण स्नेहले नमिव अक्षम्प्रक्षणं ।
यथा भांडागारे समुत्थिमनलमशुचिना शुचिनो वा वारिणा शमयति गृही तथा यतिरपीति उदराग्निप्रशमनमिति च निरुच्यते, दातृजनबाधया विना कुशलो मुनिः भ्रमरवदाहरतोति भ्रमराहार इत्यपि परिभाष्यते, येन केनचित्प्रकारेण श्वभ्रपूरणवबुद रगर्तमनगारः ★ पूरयति स्वादुनेतरेण वाहारेणेति श्वस्रपूररणमिति च निरुच्यते ।
मुनिमहाराज की तीसरी उदराग्निप्रशमन नाम की भिक्षावृत्ति यों हैं कि जिस प्रकार सोना, रुपया, रत्न, अन्न के कोठार या भण्डारे में खूब लग उठी आग को शुद्ध अथवा
संयमी भी शुद्ध खाद्य पेय द्वारा
अशुद्ध जल करके गृहस्थ शांत कर लेता है, उसी प्रकार पेट की आग को प्रशान्त कर लेता है चाहे वह खाद्य पदार्थ कैसा भी हो इस कारण इस भोजनवृत्ति का नाम उदराग्निप्रशमन इस प्रकार शब्दनिरुक्ति
नीरस, सरस, रूखा, चिकना,