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नवमोऽध्यायः
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राज हैं यों इन्द्रियसंयम प्राणिसंयम को पाल रहे मुनि के उत्कृष्ट अपहृत संयम हैं। दूसरा मध्यम अपहृतसंयम उस मुनि के होता है जो कोमल उपकरण (पिच्छिका) से शुद्ध कर जीवों का परिहार कर रहे हैं, तीसरा जघन्य अपहृत संयम तो अन्य प्रमार्जक वस्त्र, तृण। आदि उपकरणों की इच्छा करके जीवों को रक्षापूर्वक हटाकर स्थानशुद्धि करने वाले संयमी के होता है।
तत्प्रतिपादनार्थः शुद्धयष्टकोपदेशः। भावशुद्धधादयोष्टौ शुद्धयः । तत्र भावशुद्धिः कर्मक्षयोपशमनिता मोक्षमार्गरुच्याहितप्रसादा रागाद्युपद्यवरहिता, तस्यां सत्यामाचारः प्रकाशते परिशुद्धभित्तिगतचित्रकर्मवत् । कायशुद्धिः निरावरणाभरणा निरस्तसंस्कारा यथाजातमलधारिणी निराकृतांगविकारा सर्वत्र प्रयतवृत्तिः प्रशमसुखं मूर्तिमंतमिव प्रदर्शयन्ती, तस्यां सत्यां न स्वतोस्य भयं उपजायते नाप्यन्यतस्तस्य कारणाभावात् ।
उस अपहृत संयम की प्रतिपत्ति कराने के लिये आठ शुद्धियों का उपदेश समझ लेना चाहिये। भावशुद्धि, कायशुद्धि, आदिक आठ शुद्धियां हैं उन आठ शुद्धियों में पहिली भावशुद्धि तो कर्मों के क्षयोपशम से उपजी और मोक्षमार्ग के उपयोगी श्रद्धान द्वारा हुई प्रसन्नता को धारण कर रही तथा रागद्वेष आदि उपद्रवों की आकुलता से रहित हो रही है। उस भावशुद्धि के हो जाने पर आचरण का अच्छा प्रकाश हो जाता है जैसे कि बढिया शुद्ध कर ली गई भींत पर प्राप्त हुई चित्रण क्रिया (चित्रलिखना) अच्छी प्रकाशित हो जाती है। दूसरी कायशुद्धि तो मुनिराज की वह है जो कि मुनिमहाराज की काय सभी वस्त्र, छाल आदि आवरणों और कटक, केयूर, कुण्डल आदि भूषणों से रहित है, मुनि के काय में न्हाना, धोना, बाल काढना, मंजन, तेल, उवटन लगाना आदि शारीरिक संस्कारों का आजन्म त्याग कर दिया गया है। उत्पन्न हुये छोटे बच्चों का शरीर जैसे मलों को धारण कर लेता है कोई रागद्वेष विकार नहीं होता है, उसी प्रकार मनि का शरीर भी बच्चे के समान मलों को ग्लानिरहित धारे रहता है । अगों का मटकना, एंडना, उत्थान हो जाना आदि विकारों का निराकरण कर चुका मुनिशरीर है। सभी स्थानों पर सोने, बैठने, खडे होने आदि में मुनिशरीर को वृत्ति बढिया यत्नाचार पूर्वक रहती है। मूर्ति के समान प्रशान्ति सुख को अच्छा दिखला रही मुनि की काय है अर्थात् मुनि महाराज के शरीर को देखकर ऐसा भान होता है कि अतीन्द्रिय प्रशम सुख ही मानू मूर्ति को धारण कर विराज गया है । मुनि की यह उपर्युक्त शरीरावस्था ही कायशुद्धि है । उस कायशुद्धि के हो जाने पर इस मुनि के न तो अपने से भय उपजता हैं और अन्य शस्त्र, शत्रु, घातकपशु