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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
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पर हित और मित बोलना प्रयोजन है भाषासमितिबाला मुनि सज्जन, दुर्जनों के साथ वोल सकता है किन्तु उनके हितस्वरूप परिमित बात कहेगा अन्धया अधिक बोलने पर अनर्थदण्ड दोष का प्रसंग लग जायगा, परन्तु यहां सत्यधर्म में केवल सज्जन अथवा उनके भक्तों के साथ वचनव्यवहार रखना अभीष्ट है ज्ञान अथवा चारित्र की शिक्षा देने में बहुत भी बोल सकता है अतः भाषासमिति से सत्य धर्म न्यारा हो है। अब सत्यधर्म के पश्चात् संयम का निरूपण करना न्याय प्राप्त है कोई पण्डित संयम का लक्ष ग यदि यों करे कि बोलने, व्यर्थ विचारने आदि को निवृत्ति हो जाना संयम है ग्रन्यकार कहते हैं कि यह लक्षण ठोक नहीं पडेगा कारण कि निवृत्ति करने में तत्पर तो गुप्तियाँ हैं अत: गुप्तियों में अन्तर्भाव हो जाने से संयम कोई गुप्ति से न्या! नहीं ठहर सकता है । यदि कोई यों कहे कि काय, वचन, आदि को विशिष्ट यानी शुभ प्रवृत्ति करना संयम है सो भी ठोक नहीं जंचेगा। क्योंकि यों तो संयम को समिति हो जाने का प्रसंग आ जानेगा समिति से भिन्न कोई संयम नहीं सिद्ध हो पायेगा। पुनरपि कोई संयम का लक्षण यों करता है कि अस जीवों और स्थावर जीवों की हिंसा का अत्यन्त अवस्था को प्राप्त हुआ परित्याग कर देना ही संयम है। ग्रन्थकार कहते हैं कि यह भी तो ठीक नहीं है क्योंकि जीवों की हिंसा का निषेध तो परिहार विशुद्धि नाम के चारित्र में गभित हो जाता है अतः ऐसे संयम का ग्रहण करना व्यर्थ पड़ जायगा, तब तो फिर संयम का लक्षण महाराज तुम्हीं बताओ, क्या है ? ग्रन्थकार उत्तर करते हैं कि ईर्यासमिति आदि में प्रवर्त रहे मुनि के एकेन्द्रिय, द्वोन्द्रिय आदि प्राणियों की पीडा का परिहार करना प्राणिसंयम है, और इन्द्रियों के शब्द आदि विषयों में रागभाव नहीं करना इन्द्रिय संयम है ऐसा कर देने से अपहृत नामक संयम के भेद की सिद्धि हो जाती है। बात यह है कि उपेक्षासंयम और अपह संयम इस प्रकार संयम के दो भेद हो हैं। देश, काल की विधि को जानने वाले और जिन्होंने दूसरों के उपरोध करने में सर्वथा शरीर का व्यापार छोड रक्खा है तथा मन, वचन, काय तीनों रूपों से गुप्तियों को धारण कर रहा है ऐसे मूनि का किसो भी विषय में राग, द्वेष का प्रसग नहीं लगना यह तो पहिले उपेक्षासंयम का लक्षण है। यह संयम सर्वोत्कृष्ट है। दूसरा अपहृत संयम तो उत्कृष्ट, मध्यम, जघन्य यों कीन प्रकार है। उन में उत्कृष्ट तो उस मुनि के संभवता है जो जीव रहित प्रासुक वसतिका (निवासस्थान) और शुद्ध आहार लेना केवल इतने ही बाह्य साधन को रखते हैं और ज्ञान आराधना करना, चारित्र पालना. इन्द्रियों को वश में रखना ये सब जिनके स्वाधीन हैं बहिरंग में प्राणियों का प्रसंग प्राप्त हो जाने पर भी अपने को उन जीवों से सर्वथा बचाकर जोवों को रक्षा कर रहे मुनि महा