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नवमोऽध्यायः
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अन्तर्भाव हो जायगा । शौच का पृथक् ग्रहण करना व्यर्थ हे ग्रंथकार कहते हैं कि यह तो न कहना । कारण कि उस मनोगुप्ति में मन से हुये संपूर्ण परिस्पन्द का प्रतिषेध किया जाता है । जो मनोगुप्ति को नहीं कर सकते हैं वे अन्य वस्तुओं में मन को न लगावें, शुद्ध रक्खें, इसलिये यह शौचधर्म कहा गया है । पुनः कोई कहे कि शौच का आकिंचन्य धर्म में गर्भ हो जायगा लोभ का त्यागी हो आकिंचन्य को पालता है, वही शौच धर्म को धारेगा । ग्रन्थकार कहते हैं यह कथन भी ठीक नहीं है । क्योंकि उस आकिञ्चन्य धर्म में ममत्वरहित परिणामों की प्रधानता हैं। अपने शरीर इन्द्रिय आदि में ममत्वपूर्वक संस्कार, प्रमोद आदि का निवारण करने के लिये आकिंचन्य माना गया है । शौच में मानसिक पवित्रता अभीष्ट है । वह चारों प्रकार का शौच उस आकिंचन्य धर्म से न्यारा ही है। किस प्रकार से वह विभिन्नता है ? ऐमो जिज्ञासा उपजने पर तो आचार्य कहते हैं कि देखिये, जीवित रहने का लोभ, रोगरहित बने रहने का लोभ, इन्द्रियों का लोभ और उपभोग करते रहने का लोभ, इन भेदों से लोभ चार प्रकार का है। उन जीवित आदि के विषयरूप से प्राप्त हो रहे पदार्थों में बढ़े हुये लोभ की निवृत्ति कर देना यह शौच का सिद्धान्तलक्षण आम्नाय - प्राप्त है, यो स्पष्ट अन्तर है ।
सत्सु साधुवचनं सत्यं । भाषासमितावन्तर्भाव इति चेन्न तत्र साध्वसाधुभाषा व्यवहारे हितमितार्थत्वात्, अन्यथानर्थप्रसंगात् । अत्र बव्हपि वक्तव्यं । न भाषादिनिवृत्तिः संयम गुप्त्यन्तर्भात् । नापि कायादिप्रवृत्तिविशिष्टासंयमः, समितिप्रसंगात् । त्रसस्थावरः तधात् प्रतिषेध आत्यंतिक: संयमः इति चेन्न, परिहारविशुद्धि चारित्रेतर्भावात् । कर्ताह संगमः ? समितिषु वर्तमानस्य प्राणीन्द्रियपरिहारः संयमः ! अतोपहृत संयमभेदसिद्धिः । संयमो हि द्विविधः, उपेक्षासंयमो अपहृतसंयमश्चेति । देशकालविधानस्य परानुरोधनोत्सृष्टकायस्थ त्रिधातुतस्य रागद्वे वानभिषंगलक्षण उपेक्षासंयमः । अपहृतसंयमस्त्रिविध उत्कृष्टो मध्यमो जघन्यश्चेति । तत्र प्रासुकवसत्याहारमात्र बाह्य साधनस्य स्वाधीनेतरज्ञानचरणकरराध्य बाह्यजन्तूपनिपाते सत्यप्यात्मानं ततोपहृत्य जीवान् परिपालयत उत्कृष्टः, मुदुना प्रमृज्य जन्तूनपहरतो मध्यमः, उपकरणान्तरेच्छया जघन्यः ।
सज्जन पुरुषों में निर्दोष साधुवचन बोलना सत्य धर्म है । यहाँ कोई शंका उठाता हैं कि भाषासमिति में हित, मित, सत्य वचन बोलने का अन्तर्भाव हो जाता है पुनः यहां धर्मों में सत्य का ग्रहण व्यर्थ है । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना । कारण कि वहां भाषासमिति में तो साधु या असाधु पुरुषों में भाषा का व्यवहार करने