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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
उत्तमक्षमा, उत्तममार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तमशौच, उत्तमसत्य, उत्तमसंयम, उत्तम तपः, उत्तमत्याग, उत्तम आकिंचिन्य, उत्तमब्रह्मचर्य, यो दश प्रकार धर्म है । भावार्थ"वत्थुसहावो धम्मो" धर्म का प्रसिद्धलक्षण वस्तु का स्वभाव है। अतः ये उत्तम क्षमा आदिक सभी आत्मा के तदात्मक स्वभाव हैं। सिद्ध अवस्था में भी ये पाये जाते हैं तभी तो " ॐ हीं परमब्रह्मणे उत्तमक्षमाधर्माङ्गाय नमः" " ॐ हीं परमब्रह्मणे उत्तममार्दवधर्माशाय नमः " " ॐ हीं परमब्रह्मणे उत्तम आर्जवधर्माङ्गाय नमः" इत्यादि मन्त्र सुघटित होते हैं। शुद्ध आत्मा ही सर्वोत्कृष्ट ब्रह्म है । जैसे सुखप्राप्ति चरमफल है, उसी प्रकार परिपूर्ण उत्तमक्षमा आदिक भी चरम फल हैं। जबतक ये परिपूर्ण नहीं होय तबतक इनके प्रतिपक्षी माने गये क्रोध आदि विभावों में दोषों की विचारणा करते हुये जीव के उत्तम क्षमा आदि की तत्परतारूप तादात्म्य परिणति हो जाने से कर्मों का संवर हो जाता है। द्वंद्वसमास के आदि में पड़ा हुआ उत्तमपद दशों शब्दों में अन्वित कर लिया जाता है।
प्रवर्तमानस्य प्रमादपरिहारार्थ धर्मवचनं, क्रोषोत्पत्तिनिमित्ताविषह्याक्रोशादिसंभवे कालुष्याभावः क्षमा। जात्यादिमदावेशाद्यभिमानाभावो मार्दवं, योगस्यानक्रतार्ज, प्रकर्षप्राप्तलोभनिवृत्तिः शौचं, गुप्तावन्तर्भाव इति चेन्न, तत्र मानसपरिस्पन्दप्रतिषेधात् । आकिंचन्येऽवरोध इति चेन्न तस्य नर्मम्यप्रधानत्वात् । तच्चतुर्विधं शौचं ततोऽन्यदेव । कुत इति चेत्, जीवितारोग्येन्द्रियोपभोगभेदात् तद्विषयप्राप्तप्रकर्षलोभनिवृत्तेः शौचलक्षणत्वात् ।
केवल आत्मीय भावों में रमण करते हुये मुनि के बहिरंग में सर्वथा प्रवृत्तियों का निग्रह करने के लिये गुप्तियां हैं। उन परमोत्कृष्ट गुप्तियों की प्रयतना करने में असमर्थ हो रहे व्रतियों को प्रवृत्ति का उपाय दिखलाने के लिये समितियों का उपदेश है। यह फिर दश प्रकार के धर्मों का निरूपण करना तो प्रवृत्ति कर रहे संयमी के प्रमाद का परिहार करने के लिये है। क्रोध को उत्पत्ति के निमित्तकारण हो रहे दुष्ट जनों के विशेषतया नहीं सहन करने योग्य गाली देना, उपहास करना, निन्दा करना, ताड़ना, शरीर विघात कर देना आदि कार्यों का प्रकरण सम्भव हो जाने पर कलुषता नहीं करना क्षमा है । प्रकृष्ट जाति, कुल, विज्ञान, ऐश्वर्य, के होते हुये भी उनके द्वारा किये गये मद के आवेश, प्रभुता, आदि अभिमानों का पुरुषार्थ द्वारा अभाव कर डालना मार्दव है। मन, वचन, काय सम्बन्धी योग की वक्रता नहीं रखना आर्जव है । लोभ की प्रकर्षता को प्राप्त हो रही निवृत्ति का करना या वृद्धि को प्राप्त हो रहे लोभ का त्याग कर देना शौच धर्म है। यहाँ कोई शंका करता है कि निवृत्ति स्वरूप मनोगुप्ति में लोभनिवृत्ति स्वरूप शौच का