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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
आगमन नहीं है । निर्जरा भी अ, इ, उ, ऋ, ल इन हस्व पांच अक्षरों के उच्चारण में जितना काल लगता है उतने समय में परिपूर्ण बन बैठती है, इस कारण उत्तरक्षण में ही यह जीव सर्वोत्कृष्ट मोक्ष को भले प्रकार प्राप्त कर लेता है। अर्थात् अपरनिःश्रेयस तो तेरहवें गुणस्थान की आदि में हो जाती है। इससे भी छोटी श्रेणी की मोक्ष चौथे गुणस्थान के पूर्व में सातिशयमिथ्यादष्टि जीव के अपूर्वकरणदशा में प्रारम्भ हो गई कर्मों की असंख्यात गुणी निर्जरा के अवसर से ही होने लगती है। अतः सम्पूर्ण द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्मों को अनन्तकाल तक के लिये हो गई मोक्ष को चौदहवें गुणस्थान का अन्तिम समय बीत जाने पर माना गया है । मोक्ष अवस्था गुणस्थानों से अतिक्रान्त है। गोम्मटसार में कहा है कि- "गुणजीवठाणरहिया सण्णापज्जतियाणपरिहीणा,
__ सेस एवमग्गरणूणा सिद्धा सुद्धा सदा होति ॥" काः समितय इत्याहः
गुप्तियों का प्रतिपादन हो चुका अब समितियां कौन हैं ? ऐसी जिज्ञासा उपस्थित होने पर सूत्रकार महाराज इस अग्रिम सूत्र को कह रहे हैं।
ईर्याभाषेषणादाननिक्षेपोत्सर्गाः समितयः ॥५॥
समीचीन ईर्या, समीचीन भाषा, समीचीनएषणा, समीचीन आदाननिक्षेपाणा और सम्यक् उत्सर्ग ये पांच समितियाँ हैं । जीवों की रक्षा का उद्देश्य कर भूमि को निरखते हुये चलना ईर्या समिति है, हितस्वरूप, परिमित, बोलना भाषासमिति है, दोष और अन्तरायों को टाल कर शुद्ध आहार लेना एषणा समिति है। धर्मप्राप्ति या ज्ञान के साधनों का यत्नाचार पूर्वक ग्रहण करना या निक्षेपण करना आदाननिक्षेपण समिति है, जीवों को दुःख न होय ऐसा लक्ष्य कर शरीरमल का त्याग करना या शरीर को किसो स्थान पर धर देना उत्सर्ग समिति है । मन, वचन, कायों, का गोपन करना अतीव कठिन है। ये कहीं न कहीं प्रवर्तने के लिये समुत्सुक रहते हैं । अतः सर्वदा गुप्ति पालने में अशक्त हो रहे मुनिमहाराज की निर्दोष प्रवृत्ति कराने के लिये ईर्यासमिति आदिक समीचीन योगव्यापार इस सूत्र में कहे गये हैं।
सम्यग्ग्रहणेनानुवर्तमानेन प्रत्येकमभिसंबंध, सम्यगीर्येत्यादि । समितिरित्यन्वर्थ - संज्ञा वा तांत्रिकी पंचानां । तत्र चर्यायां जीवबाधापरिहार ईर्यासमितिः, सूक्ष्मबादरकद्वि,त्रि, चतुरिद्रियसंज्ञयसंज्ञिपंचेद्रियपर्याप्तकापर्याप्तक भेदाच्चतुर्दशजीवस्थानानि तद्विकल्प जीव