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अष्टमोऽध्यायः
लाभ, पुरस्कार, यश आदि को आकांक्षाओं के निवारणार्थ कहा है अर्थात् कतिपय जोव मायाचार, लोभ कषाय, भय आदि के अधीन होकर लोक में सत्कार, पूजा, यशः, धन आदि को प्राप्ति के लिये भी तीनों योगों का गोपन करते हैं, वह समीचीन गोपन नहीं है । पूजा, मान, गौरव आदि क्रियाओं का होना सत्कार है। यह मुनि महान् है, गुप्तियों को अच्छा पालता है, देश का हित है इत्यादि लोक में चारो ओर से प्रसिद्धि हो जाना लोक परिपंक्ति है । अंतरंग में यश को वांच्छा रखना यशोलाभ है, धन की लिप्सा प्रसिद्ध है इन आकाक्षाओं अनुसार की गई गुप्ति समीचीन गप्ति नहीं है । काय आदि के उस समीचीन निरोध से उस योग को निमित्त पाकर आने वाले कर्मों का आस्रव नहीं होने के कारण संवर हो जाना प्रसिद्ध हैं। यहाँ कोई तर्क उठाता है कि उस गुप्ति करके किस प्रकार (क्यों) संवर कर दिया जाता है ? ऐसो तर्क उठने पर ग्रन्यकार वार्तिक द्वारा इस उत्तर को कहते हैं ।
योगानां निग्रहः सम्यग्गुप्तिस्त्रेधा तयोत्तमः ।
संवरो बंधहेतूनां प्रतिपक्षस्वभावया ॥१॥
मन, वचन, काय का अवलम्ब पाकर हुये आत्मप्रदेशपरिस्पन्द स्वरूप योगों का भले प्रकार निग्रह करना गुप्ति हैं। वह गुप्ति मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, कायगुप्ति यों तीन प्रकार है। उस गुप्ति करके उत्तम (बढिया) संवर होता है (प्रतिज्ञा) क्योंकि बंध के कारण हो रहे मिथ्यादर्शन, अबिरति आदि के प्रतिपक्ष स्वरूप (घातक शत्रु) ये गुप्तियां हैं (हेतु) बंधकारणों के शत्रुभूत इन गुप्तियों करके संवर हो जाना अविनाभावी है ।
कः पुनः सकलं संवरं समासादयतीत्याह
यहाँ कोई जिज्ञासु प्रश्न करता है कि फिर यह बताओ कौन जीव सम्पुर्ण संवर हो जाने की निष्पन्नता को प्राप्त करता है ? ऐसी निणिनीषा उपजने पर ग्रन्थकार अगिली वार्तिक द्वारा समाधान कहते हैं।
प्रयोगः केवली सर्वं संवरं प्रतिपद्यते। द्रव्यतो भावतश्चेति परं श्रेयः समश्नुते ॥२॥
श्रेणी के असंख्यातमे भागप्रमाण सम्पूर्ण असंख्यात योगों से सहित हो रहा चौदहवें गुणस्थानवर्ती केवलज्ञानी जिनेंद्र महाराज सर्व संवर को प्राप्त करता है। द्रव्य रूप से और भावरूप से चौदहमे गुणस्थान में परिपूर्ण संवर है किसी भी कर्म नोकर्म का