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उदराग्नि द्वारा किया गया शरीर में निरामय संताप भी संचित दोषों का नाश करता हुआ आगमिष्यमारण दोषों को नहीं आने देता है । उष्णता जीवन है ।
तत्त्वार्थश्लोक वातिकालंकारे
तपो पूर्वदोष निरोधि संचितदोषविनाशि च लंघनादिवत् प्रसिद्धं ततस्तेन संवर निर्जरयोः क्रिया न बिरुध्यते ।
तपश्चर्या तो संवर और निर्जरा दोनों को करती हैं जैसे कि रोगी को लंघन करा देना या पाचन औषधि सेवन कराना आदिक प्रयोग जो हैं सो आने वाले नवीन दोषों को रोक रहे और संचित हो रहे वात, पित्त, कफ, के दोषों का विनाश कर रहे प्रसिद्ध हैं, उसी प्रकार तप भी नियमकरके भविष्य में आने के योग्य अपूर्व कर्मस्वरूप दोषों का निरोध (संबर) कर रहा है । और संचित द्रव्यकर्म दोषों का विनाश (निर्जरा ) भी कर रहा है । तिस कारण उस एक तपश्चरण करके संवर और निर्जरा दोनों का किया जाना विरुद्ध नहीं पडता है ।
अथ का गुप्तिरित्याहः -
अब कोई जिज्ञासु प्रश्न करता है कि ऊपरले सूत्र
क्या है ? बताओ । ऐसी बुभुत्सा प्रवर्तने पर सूत्रकार महाराज इस
सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः ॥ ४ ॥
मन, वचन, काय, सम्बन्धी योगों का भले प्रकार
निग्रह करना यानी विषय
कषायों में स्वच्छन्द प्रवृत्ति का रोके रखना गुप्ति है । अर्थात् शुद्ध आत्मा का संचेतन करते हुये पुरुषार्थ द्वारा मन, वचन कायों को उसी में लगाये रखना, निरर्गल नहीं प्रवर्तने देना गुप्ति है जो कि आत्मा वा बिसी वर्म के उदयादिक की नहीं अपेक्षा रखता हुआ यत्नसाध्य शुभ परिणाम है ।
कहीं गई गुप्ति का लक्षण . अग्रिम सूत्र को कहते हैं ।
योगशब्दो व्याख्यातार्थः, प्राकाम्याभावो निग्रहः, सम्यगिति विशेषणं, सत्कारलोकपरिपक्त्याद्याकांक्षानिवृत्यर्थं । तस्मात्कायादिनिरोधात्तन्निमित्तकर्माणास्रवणात् संवर
प्रसिद्धिः । कीदृक् संवरस्तया (पा) विधीयत इत्याह
"
कायवाङ्मनः कर्म योगः " इस सूत्र में योग शब्द के अर्थ का व्याख्यान किया
जा चुका है । यथेष्ट स्वच्छन्द चर्या करना प्राकाम्य है । प्राकाम्य का अभाव कर देना निग्रह कहा जाता है । इस सूत्र में " सम्यक्
यह विशेषरण तो सत्कार, लोकपरिपंक्ति,
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