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अष्टमोऽध्यायः
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जाना भावसंवर है और उस भाव संवरस्वरूप आस्त्रवनिरोध हो जाने पर उस स्त्रवपूर्वक ग्रहण किये जा रहे कर्मपुद्गलों का निराकरण हो जाना द्रव्यसंवर कहा जाता है । उस संवर का परिपूर्ण विचार करने के लिये जैनसिद्धान्त में चौदह गुणस्थानों के विभाग का निरूपण किया गया है ।
मिथ्यादष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टय संयत सम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयतात्त संयतापूर्वाकररणानिवृत्तिबादर सांप राय, सूक्ष्मसां परायोपशमक, क्षपकोपशांत, क्षीकषायवीतरागछद्मस्थ, सयोगायोग के वलिभेदाद्गुणस्थानविकल्पः ।
उन गुणस्थानों के नाम इस प्रकार हैं । १ मिथ्यादृष्टि, ९ सासादन सम्यग्दृष्टि ३ सम्यङ्मिथ्यादृष्टि ४ असंयतसम्यग्दृष्टि ५ संयतासंयत ६ प्रमत्तसंयत ७ अप्रमत्तसंयत ८ अपूर्वकरणउपशमकक्षपक 8 अनिवृत्तिबादरसांप राय उपशम कक्षपक १० सूक्ष्म सांप राय उपशमकक्षपक ११ उपशांतकषायवीतरागछद्मस्थ १२ क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ १३ सयोग - केवली १४ अयोगकेवली, इस प्रकार भेद कर देने से गुणस्थानों के चौदह विकल्प हो जाते हैं । तत्र मिथ्यादर्शनोदयवशीकृतो मिथ्यादृष्टिः, तदुदयाभावेऽनन्तानुबंधिकषायोदयविधेयकृतः सासादन सम्यग्दृष्टि: ।
उन चौदह गुणस्थानों में प्रत्येक का लक्षण यथाक्रम से इस प्रकार है कि दर्शनमोहनीय कर्म की पौद्गलिक उत्तरप्रकृति हो रहे मिथ्यादर्शन कर्म के उदय करके बश में कर लिया गया जीव मिथ्यादृष्टि कहा जाता है । उन उन गुणस्थानों में संभव रहे भावों को धार रहे जीव गुणस्थानी हैं और उन भावों को गुसास्थान कहते हैं । राजवार्तिक और गोम्मटसार में इन गुणस्थानों का बहुत विस्तार के साथ वर्णन किया गया है यहाँ संक्षेप से लक्षणमात्र कह दिया है । उस मिथ्यात्वप्रकृति के उदय का अभाव हो जाने पर अनंतानुबंधी कषाय के उदय अनुसार कलुषित कर दिया गया पराधीन जीव सासादनसम्य - दृष्टि है । उपशमसम्यक्त्व के पहिले करणत्रय पुरुषार्थ करके पांच या सात प्रकृतियों का यद्यपि अन्तस्करण नाम का उपशम कर दिया था, फिर भी उपशम के अन्तर्मुहूर्त काल में कम से कम एक समय और अधिक से अधिक छह आवली काल शेष रह जाने पर अनन्तानु - बन्धी की चार प्रकृतियों में से किसी भी प्रकृति के उदय या उदीरणा अनुसार सम्यक्त्वपर्वत से गिर गया और मिथ्यात्व भूमि तक नहीं पहुंचा जीव सासादनसम्यग्दृष्टि है । यानी विराधना से सहित हो रहा सम्यग्दर्शन ही सासादनगुणस्थान है । यह जीव नियम