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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकारे
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संवर नहीं कहा जा सकता है क्योंकि सातवेदनीय का आस्रव हो रहा है । अतः उक्त सूत्रनिर्देश ही समुचित है ।
नहि सत्यप्यास्त्रवे संवरः संभवति सर्वस्य तत्प्रसंगात् । न चापूर्वकर्मबंधस्य निरोधे सत्यास्त्रवनिरोध एवेति नियमोस्ति क्षीणकषाय स योग के व लिनोरपूर्व बंधनरोधेपि कर्मास्रवसिद्धेः । प्रकृत्यादिसकलबंध निरोधस्तु न नास्त्रत्रतिरोधमंतरेण भवतीति तन्निरोध एव बंध निरोधस्ततो युक्तमेतदास्रवनिरोधः कर्म लामात्मनः संवर इति ।
आस्रव होते सन्ते भी संवर संभव जाय यह बात सुसंगत नहीं है, अन्यथा सभी प्राणियों के उस संवर के हो जाने का प्रसंग आ जायगा । मिथ्यादृष्टि जीव के भो मिथ्यात्व और अनन्तानुधन्धी आदि का संवर बन बैठेगा। एक बात यह भी हैं कि पहिले नहीं बांधे जा चुके कर्मों के बन्ध का निरोध हो जाने पर आस्रव का निरोध होय ही जाय ऐसा कोई नियम नहीं है । जब कि कषायों का सर्वथा क्षय कर चुके बारहमे गुणस्थानवाले जीव के और तेरहवें गुणस्थानवाले योगसहित केवलज्ञानी आत्मा के अपूर्वकर्मों के बंध का निरोध होते हुये भी वेदनीय कर्म का आस्रव होना सिद्ध हैं । इस कारण बंध का निरोध संवर नहीं कहा जा सकता है । प्रकृतिबंध, स्थितिबंत्र आदिक सम्पूर्ण बन्धों का निरोध हो जाना तो का निरोध हुये विना नहीं हो पाता है । इस कारण उस आस्रव क निरोध हो जाना ही बन्ध का निरोध है । यों आस्रव के निरोध में बंध का निरोध गर्भित हो जाता है और व्याप्य हो रहे बन्धनिरोध में व्यापक आस्त्रव निरोध नहीं समा पाता है तिस कारण से यह सिद्धान्त ही युक्तियों से पूर्ण है कि कर्मों के आस्रव का निरोध हो जाना आत्मा का संवर तत्व है । यहांतक सूत्र का समर्थन समाप्त कर दिया है ।
मिथ्यादर्शनादिप्रत्यय कर्म संवरणं निमित्त क्रियानिवृत्तिर्भावसंवरः, तन्निरोधे तद्विभावनार्थं गुणस्थान विभागवचनं ।
संवरः । स द्वेधा, द्रव्यभावभेदात् । संसारतत्पूर्वक कर्म पुद्गलादानविच्छेदो द्रव्यसंवरः ।
मिथ्यादर्शन, अविरति आदि को कारण मानकर ग्रहण किये जा रहे कर्मों का सम्यग्दर्शन, विरति आदिक परिणतियों के हो जाने पर संवरण हो जाना संवर है । द्रव्यसंवर और भावसंवर के भेद से वह संवर दो प्रकार का हैं । द्रव्य, क्षेत्र आदि निमित्तों से जीव को अन्यभव की प्राप्ति हो जाना संसार हैं । उस संसरण की निमित्तकारण हो रहीं इन्द्रियलोलुपता, कषायपरिणतियां, हिंसा, व्यभिचार, आदिक क्रियाओं की निवृत्ति हो