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अष्टमोऽध्यायः
ही खिर जावेंगे, उसी क्षण आकर झड़ जाने वाला कर्म आत्मा को कुछ भी फल नहीं दे सकता है । ऐसी दशा में कर्मों के द्वारा बहुत देर तक हो रहे अज्ञान, सरोगता, यशोगायन, शोक आदि कार्य नहीं देखे जा सकेंगे । तथा अनुभव बंध को माने बिना जीवों को फल अनुभवन नहीं हो सकेगा जो कि दिनरात भोगा जा रहा है । एवं प्रदेशबंध के विना न तो सम्पूर्ण और न एक एक कर्मपरमाणुओं के साथ आत्मा व्याप्त होकर बंध सकेगा, जो कि प्रदेशबंध आत्मा को व्यापकर वृत्ति करने के लिये अत्यावश्यक है । यों चारों बन्ध सूत्रकार द्वारा कहे गये युक्तिसिद्ध हैं ।
एवं कार्यविशेषेभ्यो विशेषो बंधनिष्ठितः । प्रत्ययोनेकधा युक्तेरागमाच्च तथा विधात् ॥ १६ ॥
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इस प्रकार विशेष विशेष कार्यों से बंधों में प्रतिष्ठित अनेक प्रकार का विशेष समझ लेना चाहिये । युक्तियोंसे और तिसप्रकार के युक्तिपूर्ण आगम से यह सिद्धांत विश्वास - कर लेने योग्य है । अर्थात् कारणों के विशेष से अनेक प्रकार वन्धों की उत्पत्ति होती है यों कारण हेतु से साध्य रूप कार्य का अनुमान द्वारा निर्णय कर लो । बन्धों के अनेक कार्य भी देखे जा रहे हैं । अतः कार्यहेतुओं से कारण साध्यों को युक्तियों द्वारा साध लिया जाय इस कर्मबंधसिद्धान्त को साधने के लिये अनेक युक्तियाँ और आप्तोक्त आगमप्रमाण विद्यमान हैं ।
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पुण्यात्रवोक्तिसामर्थ्यात् पुण्यधोऽवगम्यते । सद्यादीनि चत्वारि तत्पुण्यमिह सूत्रितम् ॥ १७ ॥
शुभः पुण्यस्याशुभ: पापस्य इस सूत्र में पुण्य का आस्रव होना भी कहा गया है और भी उच्च गोत्र, यशस्कीर्ति, तीर्थंकरत्व, प्रकृतियों का भी आस्रव निरूपा गया है। सातवें अध्याय में भी पुण्यास्रव का कुछ वर्णन है । यों पुण्यास्रव के कथन की सामथ्य से जाना जाता है कि जीवों में पुण्य कर्मों का भी बंध होता है । वे पुण्य कर्म कौन हैं ? ऐसी जिज्ञासा प्रवर्तने पर सद्वेद्य, शुभ आयु आदिक चार कर्म पुण्य हैं । यों इस अगले सूत्रम श्री उमास्वामी महाराज द्वारा सूचन किया गया है वह सूत्र यों वक्ष्यमारण आकृति का है ।
सद्यशुभायुर्नामगोत्राणि पुण्यम् ॥ २५ ॥
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