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तस्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
सातवेदनीय कर्म और तीन शुभ आयुयें, तथा नामकर्म की सैंतीस शुभ प्रकृतियां और शुभ गोत्रकर्म ये पुण्य प्रकृतियां हैं। इनका अनुकूल पड रहा अनुभवन जीवों को लौकिक सुख को करने वाला परिज्ञात हो रहा है।
शुभग्रहणमायुरादीनां विशेषणं । शुभायुस्त्रिविधं, शुभं नामसप्तत्रिशद्विकल्पं; उच्चैर्गोत्रं च शुभं । कुतः सद्वद्यादिप्रसिद्धमित्युच्यते ।
इस सूत्र में शुभ पद का ग्रहण करना तो आयुः आदि तीन कर्मों का विशेषण हो रहा है । वेद्य के साथ सत् पूर्व में जुड रहा है यों सद्वेद्य, शुभ आयुः, शुभ नाम, और शुभ गोत्र ये पुण्यप्रकृतियां हैं। यह वाक्यार्थ प्रकट हो जाता है। अर्थात् तिर्यञ्च आयुः, मनुष्य आयुः, और देव आयु: यों आयुः पुण्यकर्म तीन प्रकार है । जीव को नारकी शरीर में ठूसे रहना नरक आयुः का कार्य है जो कि किसी भी नारकी को अभीष्ट नहीं है। अतः नरक आयुः को पुण्य प्रकृतियों में नहीं गिनाया है, हाँ तिर्यञ्च के शरीर में घुसा रहना स्वयं जीवों को इष्ट है कोई भी तिर्यञ्च मरने के लिये उद्युक्त नहीं रहता है। जैसे कि दुःख सहने में असमर्थ हो रहे नारकी अपना अकाल में ही मरण हो जाना चाहते रहते हैं। शुभ नाम कर्म के सैंतीस भेद हैं, मनुष्यगति और देवगति ये दो गतियां पुण्य हैं । गति कर्म जीव को अग्रिम शरीर का ग्रहण करने के लिये ले जाता है । तिर्यञ्च शरीर में जीव को रुका रहने के लिये ले जाना वाञ्छनीय नहीं है, अतः तिर्यग्गति को पुण्यप्रकृतियों में नहीं गिनाया गया है। पांच जातियों में एक पञ्चेन्द्रियजाति पुण्य कर्म है । औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस, कार्मण इन बहिरंग पांचों शरीरों को बनाने वाले पांचों अन्तरंग नामकर्म पुण्य हैं। जो कि अतीन्द्रिय हैं। आठों कर्मों का समुदाय कार्मरणशरीर है, इसको बनाने वाला कार्मणशरीर एक न्यारा नामकर्म का भेद है। यों पांचों शरीर कर्म अनुकूल वेदने योग्य होने से पुण्य हैं, औदारिक अंगोपांग, वैक्रियिक अंगोपांग, आहारक अंगोपांग ये तीनों अंगोपांग कर्म शुभ हैं। छह संस्थानों में पहिला समचतुरस्त्रसंस्थान पुण्य है। छह संहननों में एक पहिला वज्रऋषभनाराचसंहनन पुण्य है। वर्ण, रस, गंध, स्पर्श सभी प्रकार के किन्ही किन्ही जीवों को अच्छे लगते हैं अतः प्रशंसनीय ये चारों हो पुण्य हैं। मनुष्यगत्यानुपूर्व्य और देवगत्यानुपूर्व्य ये दो आनुपूयं कर्म पुण्य हैं । अगुरुलघु, परघात, उच्छवास, आतप, उद्योत, प्रशस्तविहायोगति यों पच्चीस प्रकृतियां हुयीं तथा त्रस, बादर पर्याप्ति, प्रत्येकशरीर, स्थिर; शुभ, शुभग, सुस्वर, आदेय, यशस्कीति, निर्माण, और तोर्थकरत्व, ये बारह यों नाम कर्म में सम्पूर्ण सैंतीस प्रकृतियां पुण्य हैं, तथा दो गोत्र कर्मों में एक उच्चगोत्र शुभ है। इन