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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
बद्धस्पष्टादिभेदेनावस्थितादि भिदापि च ।
द्रव्यादिभेदतो नामादिप्रभेदेन वा तथा ॥ १३॥
वह यह युक्तियों से प्रसिद्ध हो रहा कर्मबंध न्यारा न्यारा चार प्रकार हैं कारणों के भेद करके और कार्यों के भेद करके तथा स्वभाव के भेद करके चार प्रकार व्यवस्थित होता है अर्थात् चारों के कारण न्यारे न्यारे हैं मिथ्यात्व आदि से विशिष्ट हो रहा योग तो प्रकृतिबंध का कारण है। स्थितिबंधाध्यवसायस्थानों से सहित कषायों की विशेष जाति से स्थितिबंध पड जाता है, अनुभागबंधाध्यवसायस्थानपूर्ण रसप्रद कषायविशेष जाति से अनुभागबंध हो जाता है। और अविभाग प्रतिच्छेदों की न्यून, अधिक संख्या को ले रहे योगविशेषों से प्रदेशबध बन बैठता है। इसी प्रकार इन चारों के कार्य भी न्यारे न्यारे हैं, इन चारों में स्वभाव भी न्यारे न्यारे पडे हुये हैं।को ई कोई इस कारिका का अर्थ यों भी कर सकते हैं कि कारणबंध, कार्यबंध, और स्वभावबंध यों तीन प्रकार का बंध है । द्रव्यबंध कारणबंध है, और भावबंध कार्यबध है, स्वभाव बध उभयबंध कहा जा सकता है यह भी तात्पर्य निकाल लो। बद्ध यानी एकरस होकर बांध लिये गये और स्पृष्ट यानी छू लिये गये विस्रसोपचय या फल दिये विना खिर जाने वाले पुद्गल तथा बद्धाबद्ध आदि भेद करके एवं अवस्थित, भुजाकार, अल्पतर आदि भेदों करके भी कर्मबन्ध कई प्रकार का है । एवं द्रव्यबंध, भावबंध, उभयबंध या द्रव्य क्षेत्र, काल आदि भेदों से भी अथवा नाम: स्थापना, आदि भेदों से भी बन्ध के कई भेद हो सकते हैं । चौथे सूत्र की व्याख्या में कतिपय भेदों का निरूपण किया भी है।
विना प्रकृतिबंधान्न स्युनिावरणादयः । कार्यभेदाः स्वयं सिद्धाः स्थितिबंधाद्विना स्थिराः ॥१४ ।। न चानुभवबंधेन विनानुभवनं नृणां । प्रदेशबंधतः कृत्स्नै कैर्न व्याप्यवृत्तये ॥ १५ ॥
अब ग्रन्थकार चारों बन्धों की आवश्यकता को बताते हैं कि पिण्डस्वरूप प्रकृ. तियों के बन्ध विना ज्ञान का आवरण, दर्शन का आवरण, आदिक भिन्न भिन्न कार्य नहीं हो सकेंगे। यों विना प्रयत्न के स्वयं सिद्ध हो रहे भिन्न भिन्न अज्ञान आदि कार्य सब प्रकृति बंध से होते हैं । और स्थितिबंध को माने विना वे कर्मबंध स्थिर नहीं रह सकेंगे, झट आते