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अष्टमोध्यायः
पूर्व के छठे अध्याय में "कायवाङ्मनःकर्म योगः" इस सूत्र करके योग कह दिया गया है । उस योग के विशेष से अर्थात् विशेषजाति के योग अथवा मिथ्यात्व आदिके साहित्य को धार रहे योगविशेष नामक कारण से तिस प्रकार पुद्गलों का आस्रव होकर बंध हो जाता हैं। इस सूत्र में "स्थिताः" इस शब्द से नियत क्षेत्र में अवस्थिति हो जाना कहा गया है । वे पुद्गल यहां आत्मा में आकर ठहर जाते हैं चलते, घूमते नहीं रहते हैं। यदि "स्थिताः" नहीं कहते तो हेतु के विना नियत क्षेत्र में अवस्थान हो जाने की क्षति पड जाती, अतः " स्थिताः" कहना आवश्यक है।
सर्वेषु भवेषु सर्वत इत्यनेन कालोपादानं कृतम् ।
इस सूत्र में सर्वत: पद का अर्थ " सम्पूर्ण भवों में " यह है । पंचमी विभक्ति के अतिरिक्त अन्य सप्तमी आदि विभक्तियों से भो तस् प्रत्यय हो जाता है, अतः सम्पूर्ण भवों में कर्मबन्ध होता रहता है इस कथन करके सूत्रकार महाराज ने काल का ग्रहणकिया है । संसारी जीवों के भूत, वर्तमान और यथायोग्य भविष्य यों सम्पूर्ण भवों में प्रदेशबन्ध होता रहता है। इसी रहस्य को अगलो वार्तिक में ग्रन्थकार कह रहे हैं ।
सर्वेष्वपि भवेष्वेते काचिदेव भवे न तु ।
सर्वतो वचनादेव प्रतिपत्तव्यमंजसा ॥ १०॥
ये कर्मों के प्रदेशबंध तो सम्पर्ण भवों में भी होते रहेंगे किसी एक, दो भव में ही नहीं होंगे। इस रहस्य की "सर्वतः” इस कथन से ही निर्दोषप्रतिपत्ति कर लेनी चाहिये।
इति प्रदेशयों बंधः कर्मस्कंधादिभिर्मतः।
स नु प्रदेशबंधः स्यादेष बंधो विलक्षणः ॥ ११ ।।
इस पर्वोक्त प्रकार सूत्रोक्त सम्पूर्ण विशेषणों को सार्थक कहते हुये सूत्रकार ने जो आत्मा का कर्म स्कंध, नोकर्म वर्गणा आदि प्रदेश समुदायों के साथ जो बंध मान है वह प्रदेशबंध समझा जायगा, यह प्रदेशबंध उन प्रकृतिबंध, स्थितिबंध और अनुभागबंध से सर्वथा भिन्नलक्षणवाला निराला ही है।
सोयं कारणभेदेन कार्यभेदेन चास्थितः । स्वभावस्य च भेदेन कर्मबन्धश्चतुर्विधः ॥ १२॥