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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
मानेंगे उनके यहाँ इन्द्रियों, हेतुओं और शब्दों से होने वाले प्रत्यक्ष, अनुमान, और आगम प्रमाण नहीं उपजेंगे, क्योंकि ये इन्द्रिय आदिक सब स्कन्ध ही है, इन्द्रिया स्कन्धों को ही 'जानती हैं, यों प्रमाणों के विना किसी भी पदार्थ का ग्रहण नहीं हो सकेगा। ज्ञानों के विना ज्ञेय की सिद्धि का कोई उपाय नहीं।
अनन्तानन्तप्रदेशवचनं प्रमाणान्तरव्यपोहाथ। कर्मणोनन्तानन्ताः प्रदेशाः परमाणुरूपाः कथं स्कंधात्मना परिणमन्ते पर्वतात्मना सूक्ष्मसलिलकरणवद्विरोधात् । ततो न ते नाम्नो ज्ञानाभावादेरनुभवफलस्य हेतव इति न शंकनीयं स्कन्धाभावेक्ष विज्ञानाभावात् । सर्वपदार्थाग्रहरणस्यानुषवते: सकलानुमेयार्थानामपि लिंगार्थग्रहणासंभवात् । तृतीयस्थानसंक्रान्तानामपि शब्दगम्यानां प्रकाशकशब्दग्रहणविरोधात् । स्वसंवेदनादात्मनहरणान्न सर्वाग्रहरणमिति चेन्न, शरीरादिस्कंधाभावे मनोनिमित्तकस्य स्वसंवेदनस्यानुपपत्तेः।
सूत्र में प्रदेश परमाणुओं की अनन्तानंतनामक संख्या का जो कथन किया गया है वह अन्य संख्यात, असंख्यात नामक संख्याप्रमाणों का व्यवच्छेद करने के लिये है । यहाँ कोई पुनः शंका उठाता है कि कर्मों के परमाणुस्वरूप हो रहे अनन्तानन्त प्रदेश भला किस ढंग से स्कंध स्वरूप होकर के परिणमन करते हैं ? बताओ । जल के सूक्ष्म कण जैसे मोटे पर्वत स्वरूप होकर के परिणत नहीं हो जाते हैं, उसी प्रकार छोटे छोटे अतींद्रिय परमाणुओं का मोटा मोटा स्कन्ध नहीं बन सकता है। अतीन्द्रिय से इन्द्रियग्राह्य या छोटे से मोटा हो जाने में विरोध दोष आता है। तिस कारण वे प्रदेश ज्ञानाभाव, दर्शनाभाव, दुःखवेदना आदि फलानुभव स्वरूप नाम के कारण नहीं हो सकते हैं। अब ग्रन्थकार कहते हैं कि यह शंका नहीं करनी चाहिये। क्योंकि स्कन्ध को नहीं मानने पर इन्द्रियजन्य विज्ञान नहीं हो सकता है और ऐसा होने से सभी पदार्थों का ग्रहण नहीं हो सकने का प्रसंग प्राप्त होगा कारण कि अनुमान प्रमाण से जाननेयोग्य अर्थों का भी ग्रहण नही हो सकता है। अनुमान का उत्थापक व्यप्तिविशिष्ट लिंग है जो कि स्कन्ध स्वरूप है स्कन्ध को माने विना लिंगस्वरूप स्कन्धार्थ के ग्रहण होने का असंभव है। आगमप्रमाण से अर्थों को जान लो सो भी ठोक नहीं पडेगा। क्योंकि प्रमाणों की गणना प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम इस ढंग से चली आ रही है । जगत् के अनेक अर्थ प्रत्यक्षप्रमाण से जानने योग्य हैं और कतिपय अर्थ दूसरे अनुमान प्रमाण से जाने जाते हैं, बहुत से अर्थों को हम आगमप्रमाण से जानते हैं यों तीसरे स्थान में आगम प्रमाण द्वारा संक्रमण प्राप्त हो रहे वाच्यार्थ भी शब्दों करके जाननेयोग्य हैं। स्कन्ध को माने विना उन वाच्यार्थों के प्रकाशक हो रहे स्कन्धस्वरूप पौद्गलिक शब्दों