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अष्टमोऽध्यायः
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है । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो न कहना। क्योंकि बहुव्रीहि समास करने पर अर्थ में जैनसिद्ध न्त से विरोध आवेगा, जब कि अन्य पदार्थ को प्रधान रखनेवाली समासवृत्ति की जायगी तो जिन प्रकृतियों का कारण नाम है यों अर्थ करने पर नाम को सम्पूर्ण कर्म प्रकृतियों का हेतुपना प्रसंग प्राप्त हुआ, किन्तु वह तो सिद्धान्त से विरुद्ध पडता है, क्योंकि वहां जैनसिद्धान्त में नाम को उन प्रकृतियों का निमित्तकारणपने करके कथन नहीं किया गया है । ज्ञानावरण आदि प्रत्येक कर्मों के नियत हो रहे प्रदोष, निन्हव, दुःख, शोक आदि को कर्मास्रव का निमित्तकारणपना प्रकाशित किया गया है। अतः तत्पुरुष समास करना ही श्रेष्ठ है । अधिक धान्य रखनेवाले प्रत्यारम्भी व्यापारी (बहुव्रीहि) से वह परोपकारी पुरुष (तत्पुरुष) ही श्रेष्ठ है।
के पुनस्ते नाम्नः प्रत्ययाः कुतो वेत्यावेदयन्नाहः
यहाँ कोई शंकाशील तर्क करता है कि वे प्रदेश बन्ध भला नाम के कारण हो रहे फिर कौन से हैं ? अथवा किस प्रमाण से वे वैसे सिद्ध हो रहे हैं ? अब ग्रन्थकार इस तर्क के ऊपर आवेदन करते हुये समाधान वचन कहते हैं।
नामान्वर्थं पदं ख्यातं प्रत्ययास्तस्य हेतवः प्रदेशाः कर्मणोऽनंतानंतमानविशेषिताः ॥१॥ स्कंधात्मना विरुध्यन्ते न प्रमाणेन तत्वतः । स्कंधा भावेक्षविज्ञानाभावात् सर्वाग्रहागतेः ॥२॥
" नामप्रत्ययाः” इसका अर्थ यों है कि प्रकृति, प्रत्यय, अनुसार यौगिक अर्थ को कह रहा जो अन्वर्थ पद है वह नाम बखाना गया है उस नाम के प्रत्यय यानी कारण वे कर्म के प्रदेश हैं । जो कि अनन्तानन्त नामक विशेष संख्या के परिमाण से विशिष्ट हो रहे हैं । वे परमाणयें स्कन्धस्वरूप करके बंध रही हैं । बंध रहे प्रदेश किसी प्रमाण करके विरोध को प्राप्त नहीं होते हैं कारण कि वास्तविक रूप से यदि स्कन्ध को नहीं माना जायगा तो इन्द्रिय जन्य ज्ञानों का अभाव हो जायगा और इन्द्रियजन्य ज्ञानों का अभाव हो जाने से अन्य, अनुमान, आगम, प्रमाणों करके भी जो सम्पूर्ण पदार्थों का ग्रहण होता है उन सब का ग्रहण नहीं हो सकने का प्रसंग आ जावेगा, जो कि इष्ट नहीं है। अर्थात् प्रदेशों का स्कन्ध रूप से बंध होना प्रमाण सिद्ध हैं। जो बौद्धपण्डित स्कन्धपर्याय को नहीं