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अष्टमोऽध्यायः
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के ग्रहण हो जाने का विरोध है। यों स्कन्ध के विना अस्मदादिकों को किसी भी प्रमाण की उत्पत्ति नहीं होने से किसी भी अर्थ का ग्रहण नहीं हो सकता है । यदि यहाँ कोई छोटो सी शंका उठावे कि स्वसंवेदनप्रत्यक्ष से आत्मा का ग्रहण तो हो जायगा । अतः सब का ग्रहण । नहीं हो सकेगा, यह जैनों का कथन उचित नहीं है। स्वसंवेदन प्रत्यक्ष कोई स्कन्ध नहीं है, ज्ञानमात्र है, अतः स्कंध को माने विना भले ही इन्द्रियजन्य ज्ञान नहीं होय, धूम से अग्नि का ज्ञान न होय, शब्दों द्वारा वाच्यार्थ की प्रतिपत्ति नहीं होय, किन्तु अमूर्त स्वसंवेदन से आत्मा का प्रत्यक्ष हो ही जाता हैं । कारिका में सब का ग्रहण नहीं होना क्यों लिखा ? । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो न कहना। क्योंकि स्वसंवेदनप्रत्यक्ष भी मन इन्द्रिय से होता है। शरीर. स्कन्ध के वक्षःस्थल में मनोवर्गणाओं करके आठ पत्तेबाले खिले हुये कमल समान पौद्गलिकमन बनता है। अतः शरीर, वनस्थल, आदि स्कन्धों का अभाव मानने पर मन इन्द्रिय को निमित्त पाकर होनेवाले स्वसंवेदन प्रत्यक्ष को उत्पत्ति सिद्ध नहीं हो सकती है।
मुक्तस्वसंविदितविज्ञानात् सवर्थप्रहरसिद्धर्न सर्वार्थानहरण इति चेत्र, लिंगां शब्दाद्यग्रहणे तद्व्ववस्थानुपपत्तेः। न हि परमारराव एव लिंगशब्दात्मनामात्मसात्कुर्वते, तेषां सर्वथा बुध्द्यगोचरत्वात् । नापि परमा एव एवेंद्रियभाविना लिंगादिग्रहणकरणादिना नियुज्यते न च शरीरा भावेनानुभवाख्यभोगायतनत्वं प्रतिपद्यते अतिप्रसंगात् ।
पुनः शंकाकार कटाक्ष करता है कि मोक्ष को प्राप्त हो चुके जीव के स्वसंविदित हो रहे विज्ञान से सम्पूर्ण अर्थों का ग्रहण हो जाना सिद्ध है मुक्त सर्वज्ञ को सम्पूर्ण पदार्थों के जानने में किसी स्कन्ध की आवश्यकता नहीं पडती है, अतः स्कन्ध को माने विना सम्पूर्ण अर्थों का ग्रहण नहीं हो सकने का प्रसंग नहीं आता है । आचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं मान बैठना चाहिये, क्योंकि मुक्त जीवों का इस समय प्रत्यक्ष तो है नहीं । हाँ, अविनाभावो लिंग या शब्दस्वरूप आगम से ही मोक्षप्राप्त जीवों की प्रसिद्धि की जायगी, ज्ञापकलिंग या वाचकशब्द आदि का ग्रहण नहीं करने पर उन मुक्तजीवों की और मुक्त जीवों के अतीन्द्रिय ज्ञान की व्यवस्था नहीं बन सकती है। परमाणुयें ही तो लिंग, शब्दस्वरूपों को अपने अधीन नहीं कर लेती हैं। क्योंकि वे परमाणुयें सभी प्रकारों से बुद्धि के गोचर नहीं हैं अर्थात् . बौद्ध यदि यों कहें कि परमाणुयें ही संवृति अनुसार लिंग या शब्दस्वरूप करके भास जाती हैं, कोई स्कन्ध पदार्थ नहीं है । इसपर ग्रन्थकार ने यह कहा है कि अत्यन्तसूक्ष्म, अतीन्द्रिय परमाणुयें जानी नहीं जा सकती हैं। दूसरी बात यह भी है कि स्कन्ध परिणति के विना केवल परमाणुयें ही तो इन्द्रियों करके होने वाले लिंगग्रहण करना, शब्द ग्रहण करन