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तत्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
उपजा। इस प्रकार द्रव्यकर्म और भाव कर्म के उपजने और विगडने की धारा चलती रहती है। थोडीसी गीले ईंधन की आग ने धुआं उपजाया वह धुआं कुछ देर ठहर कर नष्ट हो गया, पुनः दूसरी आग ने अन्य धुयें को उपजाया, यों प्रवाह चलता रहता है, धूम उत्पादक ईंधन को आग का सर्वथा नाश हो जाने पर धूम उपजता ही नहीं है। अकृत्रिम चैत्यालयों के धूपघटों में उपादान कारणों के मिलते रहने से सर्वदा अग्नि और धुऐ का कार्यकारणप्रवाह चलता रहता है जैसे कि कुलाचलों के हृदों में उपादानों की प्राप्ति होते रहने से जलप्रवाह सतत चलता है। अग्नि का जो अवयव धुंआ अवयव को उपजा चुका वह अग्नि मर गयी कुछ क्षणों के बाद उससे उत्पन्न धुंआ भी नष्ट हो गया, इसी प्रकार द्रव्य कर्म और भाव कर्म के उत्पाद, विनाशप्रक्रिया को परंपरा प्रवृत्त रही है ।
ततः फलोपभोगेपि कर्मणां न क्षयो नणां । पादपादिवदित्येतद्वचोपास्तं कुनीतिकं ॥६॥ पारतंत्र्यमकुर्वाणाः पुंसो ये कर्मपुद्गलाः।
कर्मत्वेन विशिष्टास्ते संतोप्यत्रांबरादिवत् ॥७॥
द्रव्य कर्मों के नाश हो जाने से पुनः भाव कर्म भी नष्ट हो जाते हैं तिस कारण किसी के इस आग्रहपूर्ण वचन का खंडन किया जा चुका है कि जैसे कि आम, अमरूद, शयन आदि फलों का उपयोग करने पर भी, उनके कारणभूत, वृक्ष, पलंग आदि का नाश नहीं होता है, उसी प्रकार कर्मों के द्वारा जीवों को फल का उपभोग करा देनेपर भी कर्मों का क्षय नहीं होता है। ग्रन्थकार कह रहे हैं कि यह वचन खोटी नीति या युक्ति को धार रहा है, सूक्ष्म दृष्टि से विचारा जायगा तो जितने फल का हम उपभोग कर चुके हैं उतने कारण अंशों का पहिले ही विनाश हो चुका है। ऊन या सूत के वस्त्रों से जो गर्मी प्रतिदिन भोग ली जाती है उतना वस्त्र का अंश उसी दिन नष्ट हो जाता है भले ही वह वस्त्र पूर्णरूप से पांच वर्ष में नष्ट हो किन्तु उसके सूक्ष्म अवयव फल देकर क्षण क्षण में नष्ट हो रहे हैं, गहना भी घिसता है । वृक्ष, पलंग, खाद्य, पेय, आदि सभी पदार्थों में फल देकर विनश जाने की यही प्रक्रिया ठीक बैठती है। जीव को फल देकर कर्म भी नष्ट हो ही जाते हैं। पहिले कर्मपन पर्याय से विशिष्ट हो रहे पुनः फल देकर कर्मत्वपर्याय से छूट गये कर्मपुद्गल जो आत्मा की परतंत्रता को नहीं कर रहे हैं वे विद्यमान हो रहे सन्ते भी वस्त्र या आकाश आदि के समान आत्मा में कुछ भी आकुलता पैदा नहीं कर सकते हैं। अर्थात् एकबार