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अष्टमोऽध्यायः
वस्त्र, मणि, या सुवर्ण से जो मल अलग हो जाता है वह दूर पड़ा रहकर मरिण आदि की क्षति नहीं करता है, हाँ, पुनः भले ही कारण पाकर वह उनका मल बन जाय । यों तो कर्म भी कर्मत्वपर्याय से छूट गये पुनः कालान्तर में कारण पाकर कार्मणवर्गणारूप होकर आत्मा करके आकर्षित हो जाते हैं । किन्तु फल देकर एक बार कर्मत्वपर्याय का नाश हो जाना अवश्यंभावी है। यों सिद्धालय में जहाँ सिद्ध भगवान् विराजमान हैं वहां अनन्तानन्त कार्मणवर्गणायें ठसाठस भरी हुयी हैं। वे सिद्धों को परतंत्र नहीं कर सकती हैं। हाँ, एकेन्द्रिय जीवों करके आकर्षित होकर उन्हें परतन्त्र करती हैं। अन्यत्र के जीव भी उनको खींच सकते हैं। अतः एक बार फल का उपभोग करा चुकने पर पुनः परतन्त्रता को नहीं कर रहे कर्मों का विनाश हो जाना यह सिद्धान्त युक्तिसंगत हैं। फल देकर भी कर्मों का विनाश नहीं होता है यह पक्ष अयुक्त है।
तदेवमनुभवबंध प्रतिपाद्याधुना प्रदेशबंधमवगमयितुमनाः प्राह
तिस कारण इस प्रकार तीसरे अनुभव बंध की प्रतिपत्ति कराकर अब सूत्रकार महाराज चौथे प्रदेशबंध को समझाने के लिये मन में विचार करते हुये इस अग्रिम सूत्र को बढिया कह रहे हैं।
नामप्रत्ययाः सर्वतो योगविशेषात्सूक्ष्मैकक्षेत्रावगाहस्थिताः सर्वात्मप्रदेशेष्वनंतानंतप्रदेशाः ॥२४॥
ज्ञानावरण आदि सम्पूर्ण प्रकृतियों की संज्ञा के कारण हो रहे और सम्पूर्ण भवों में मन, वचन, काय सम्बन्धी योगविशेष से आकर सूक्ष्म होकर जीव के साथ एक क्षेत्र में अवगाह कर ठहर गये वे कर्मपुद्गल इन आत्मा के सम्पूर्ण प्रदेशों में अनन्तानन्त प्रदेशपरमाणुएं स्वरूप गणनीय हो रहे बन्ध जाते हैं । अर्थात् जैसे विशेषजाति के मीठेपन की हीनता, अधिकता से गुड, शक्कर, मिस्री, आदि पदार्थ बन बैठते हैं। सूत की न्यून ऐंठन, अधिक ऍठन, पतलापन, मोटापन, कड़ापन, ढीलापन, नीचे-ऊपर चढने की रचना, रंग आदि अनुसार अनेक जाति के वस्त्र बन जाते हैं । वर्गणाओं में परमाणुओं की हीनता, अधिकता, अनुसार कार्मणवर्गणा, ध्रुववर्गणा, सान्तरनिरन्तरवर्गणा, आदि स्कन्ध बन बैठते हैं, उसी प्रकार परमाणुओं की हीनता, अधिकता से न्यारे-न्यारे ज्ञानावरण आदि कर्म बंध जाते हैं, अतः कर्मों के ये प्रदेश न्यारे-न्यारे नामों के कारण हो रहे हैं। ये कर्मों के प्रदेश संसारी आत्मा के सम्पूर्ण भूत, वर्तमान, भविष्य, भवों में बंध चुके, बंध रहे और