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अष्टमोऽध्यायः
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है। दूसरी निर्जरा फिर जीव के उपक्रमक्रियाविशेष को कारण मानकर होती हैं। वह अविपाक निर्जरा भविष्य में कही जायगी। पाल में देकर आम्रफल, पनस आदि का जैसे योग्य काल से पूर्व में ही परिपाक कर दिया जाता है उसी प्रकार आत्मीय पुरुषार्थ करके भविष्य में उदय आने वाले कर्मों का भी विपाक वर्तमान में कर दिया जाता है । फल देकर इन कर्मों का निकल जाना औपक्रमिक निर्जरा है। क्वचित् द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावों को निमित्त नहीं पाकर स्थितिपूर्ण हो चुके कर्मों का आत्मा को फल दिये बिना खिर जाना अविपाकनिर्जरा ली गयी है । तपः से भी अविपाकनिर्जरा होती है ।
प्रागनुक्ता समुच्चार्या चशब्देनात्र सा पुनः तपसा निर्जरा चेति नियमो न निरुच्यते ॥३॥ फलं दवा निवर्तते द्रव्यकर्माणि देहिनः । तेनाहृतत्वतः स्वाद्याद्याहारद्रव्यवत्स्वयं ॥४॥ भावकर्माणि नश्यति तन्निवृत्त्यविशेषतः ।
तत्कार्यत्वाद्यथाग्न्यादिनाशे धूमादिवत्तयः ॥ ५ ॥
इस सूत्र में च शब्द पड़ा हुआ है यहां च शब्द करके पहिले नहीं कही गयी निर्जरा का समुच्चय हो जाता है। समुच्चय, अन्वाचय, इतरेतरयोग और समाहार इन च के चार अर्थों में से यहां समुच्चय अर्थ लिया जाय, वह निर्जरा तप से ही होती है यों नियम करना यहां अभीष्ट नहीं किया गया है, तप से संवर भी हो जाता है। शरीरधारी आत्मा को फल देकर पौद्गलिक द्रव्यकर्म निवृत्त हो जाते हैं (प्रतिज्ञा) कारण कि उस आत्मा करके द्रव्यकर्म होने के योग्य कार्मणवर्गणाओं का स्वयं आहार किया जा चुका है (हेतु) जैसे कि स्वाद लेने योग्य या खाने योग्य आहार द्रव्य फल देकर स्वयं निकल जाता है (दष्टान्त)। इस अनुमान द्वारा सूत्रोक्त रहस्य को युक्तिसिद्ध कर दिया है । सामान्यरूप से उन द्रव्य कर्मों की निवृत्ति हो जाने के कारण भावकर्म भी नष्ट हो जाते हैं (प्रतिज्ञा) क्योंकि उन द्रव्य कर्मों के कार्य भाव कर्म हैं (हेतु) जिस प्रकार कि अग्नि आदि के नाश हो जाने पर धूम आदि की प्रवृत्तियां नष्ट हो जाती हैं। अर्थात् द्रव्यक्रोध कर्म का उदय आने पर आत्मा में क्रोध उपजा, उधर कर्म बिचारा फल देकर खिर गया, इधर क्रोधफल भी क्षणमात्र स्थिर रहकर विघट गया, अग्रिम समयवर्ती भले ही वासना को उपजा जाय । पुनः अग्रिमसमयवर्ती दूसरे द्रव्यकोधकर्म का उदय आया तदनुसार अन्य भावक्रोध फल