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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
भवति संवरश्चेति । धर्मेन्तर्भावात्संवरहेतुत्वमिति चेन्न,पृथगग्रहणस्य प्राधान्य ख्यापनार्थत्वात् । एतदेवाह
पुनः शंकाकार कहता है कि यदि यहाँ सूत्रकार को विपाक के पश्चात् निर्जरा हो जाने का निरूपण करना आवश्यक प्रतीत हुआ तो फिर यहाँ ही सूत्रलाघव के लिये " तपसा च" तप से भी निर्जरा हो जाती है यों कह देना चाहिये। नवमें अध्याय में "तपसा निर्जरा च" यों नहीं कहना पड़ेगा, “निर्जराच" इतने अक्षरों का लाघव क्या थोडा है ? ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना । कारण कि संवर का अनुग्रह करने की अधीनता है तप से निर्जरा होती हैं और संवर भी होता है. यों इस अर्थ के लिये " संवरश्च" यों भी कहना पडेगा, फिर लाघव कहां रहा ? और अच्छा भी नहीं जंचा, " ततो निर्जरा तपसा च" यों कहकर “संवरश्च" कथन करना उचित नहीं दीखता है। पुनः शंकाकार अपने आग्रह को पुष्ट कर रहा है कि उत्तमक्षमा आदि दशधर्मों में उत्तम तप को संवर का हेतु कहा जायेगा यों धर्म में अन्तर्भाव हो जाने से तप में संवर का हेतुपना सिद्ध है और यहाँ तप का कथन कर देने से तप को निर्जरा का कारण जान लिया जायगा। पुनः नवमे अध्याय में तप का ग्रहण करना व्यर्थ पडेगा, अतः लाघव हुआ। ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना । क्योंकि संवर और निर्जरा इन दोनों के हेतुओं में तपः प्रधानभूत हैं इस प्रधानता का बखान करने के लिये तपःका यहां और वहां पृथक ग्रहण करना आवश्यक है । इस हो रहस्य को ग्रन्थकार अग्रिम वार्तिकों में कह रहे हैं ।
ततश्च निर्जरेत्येतत्संक्षेपार्थमिहोदितं । निर्जरा प्रस्तुतेरग्रेप्येतभेदप्रसिद्धये ॥१॥ यथाकालं विपाकेन निर्जरा कर्मणामियं ।
वक्ष्यमाणो पुनर्जीवस्योपक्रमनिबन्धना ॥२॥
- सूत्रकार महाराज ने यहां संक्षेपपूर्वक अर्थप्रतिपत्ति कराने के लिये " ततश्च निर्जरा" यह सूत्र कह दिया है। कर्मों का विपाक होने के पश्चात् उनकी निर्जरा होती है। यों निर्जरा यहां प्रस्ताव प्राप्त है । नौवें अध्याय में कहते तो अनुभव का पुनः निरूपण करने से गौरव हो जाता । एक प्रयोजन यह भी है कि " ततश्च" कह देने से इस अनुभवबंध से निर्जरा के भेद की प्रसिद्धि हो जाती हैं हेतु से हेतुमान् न्यारा होता है। अपनी-अपनी स्थिति अनुसार योग्य काल में कर्मों के विपाक करके यह विपाकजन्य निर्जरा होती रहती