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________________ श्लोक-वार्तिक दोषो ? अनित्यत्वप्रसंग: सावयवस्यानित्यत्वप्रसिद्धघटादिवदिति चेत्, कथंचिदनित्यत्वस्येष्टत्वाददोषोयं । सर्वथानित्यत्वेर्थक्रियाविरोधात् । सर्वस्य कथंचिदनित्यत्वस्य व्यवस्थापनात् । ___कोई पंडित कहते हैं कि उन धर्म आदिकों के प्रदेश मुख्य नहीं हैं, अतः उपचार से ही उनके प्रदेश मान लिये जानो । यों कहने पर तो ग्रन्थकार पूछते हैं, कि उन धर्मादिकों में किस कारण से उन प्रदेशों का उपचार किया जाता है, बतायो ? यदि तुम यों कहो कि धर्म आदिकों का एक ही समय में नाना देशों में वर्त रहे द्रव्यों के साथ सम्बन्ध होरहा है, इस ही कारण इन में प्रदेशों का उपचार है क्योंकि प्रदेशों से सहित होरहे हो डेरा, परदा, वांस आदि में उस अनेक देश-वर्ती द्रव्यों के साथ युगपत् सम्बन्ध होजाने का दर्शन होरहा है। यों कहने पर तो ग्रन्थकार कहते हैं कि उन्हीं डेरा आदिकों के समान धर्म आदिक में भी मुख्य प्रदेशों का सद्भाव मानने पर भला कौनसा दोष आता है, बतायो । यदि तुम यों कहो कि मुख्य प्रदेश मानलेने पर काण्ड पट आदि द्रव्यों के भी अनित्यपन का प्रसंग पाजायगा क्योंकि अवयवों से सहित होरहे सावयव पदार्थों का अनित्यपना प्रसिद्ध है, जैसे कि सावयव घट, पट, प्रादिक अनित्य हैं । यों कहने पर तो प्राचार्य कहते हैं कि धर्म आदिकों का कथंचित्-अनित्यपन यह हमारे यहां कोई दोष नहीं है, कथंचित्-अनित्यपना धर्म आदिकों के इष्ट किया गया है, यदि धर्म आदिकों को सर्वथा नित्य माना जायगा तो कूटस्थ नित्य पदार्थ के अर्थक्रिया होने का विरोध होजावेगा, पर्यायों की अपेक्षा सम्पर्ण पदार्थों के कथंचित-अनित्यपन की व्यवस्था करा दी गयी है, अतः धर्म आदिकों के अनित्यपन का भय करना व्यर्थ है। जीवस्य सर्वतद्रव्यसंगमो न विरुध्यते। लोकपूरणसंसिद्धेः सदा तद्योग्यतास्थितेः ॥ ६॥ ___ एक जीव का भी सम्पूर्ण उन मूर्तिमान द्रव्यों के साथ सम्बन्ध होना विरुद्ध नहीं पड़ता है, केवलि-समुद्घात के अवसर पर लोक-पूरण अवस्था में एक समय तक सम्पूर्ण मूर्तद्रव्यों के साथ सम्बन्ध होजाना भले प्रकार सिद्ध है, और अन्य अवस्थाओं में भी सर्वदा उस सर्व मूर्तिमद्रव्यों के साथ सम्बन्ध होने की योग्यता अवस्थित रहती है, अर्थात्-जैसे तीन गज लम्बा फैला हुआ चादरा तीन गज भूमि को छरहा है, छोटीसी घरी कर देने पर भी संकचित चादरे में तीन गज भूमि को स्पर्श करने की योग्यता सदा विद्यमान है. इसी प्रकार चींटी, मक्खी, घोड़ा आदि अवस्थाओं में भो जीव के तीनों लोक में फैल जाने की योग्यता विद्यमान है। हाँ जीव के अलोकाकाश में व्यापने-योग्य अनन्तानन्त प्रदेश नहीं हैं । वैशेषिकों ने भी 'सर्वमूर्तिमव्व्यसंयोगित्वं व्यापकत्वं' यों आत्मा का व्यापकपना इष्ट किया है, अन्तर इतना ही है कि वैशेषिक या नैयायिक तो सम्पूर्ण आत्माओं का सर्वदा व्यापक बना रहना अभीष्ट करते हैं और हम स्याद्वादी आत्मा का परिमाण तत्कालीन गृहीत शरीरों के बराबर स्वीकार करते हैं। हां वैक्रियिक समुद्घात, मारणान्तिकसमुद्घात, केवलिसमुद्घात, भवस्थानों में मात्मा के प्रदेश लोक में बहुत फैल जाते हैं, लोक-पूरण अवस्था में तो तीन सौ तेतालीस
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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