________________
पंचम - अध्याय
७ह
धन राजू प्रमाण लोक को कोई एक जीव व्याप्त कर लेता है, हाँ सम्पूर्णं लोक में फैल जाने की योग्यता सम्पूर्ण जीवों के सदा विद्यमान है ।
जीवो हि लोकपूरणावस्थायां सकृत्सर्वमूर्तिमद्द्द्रव्यैः संबध्यते इति सिद्धान्तसद्भावाच्च स्याद्वादिनां तस्य सकृत्सर्वमूर्तिमद्रव्य संगमो विरुध्यते, शेषावस्थास्वपि तद्योग्यताव्या वस्थापनात् । एतेन धर्माधर्मयोः सर्वथा प्रतिदेशं लोकाकाशव्याप्तिवदेकजीवस्यापि तद्व्याप्ति योग्यत्वस्थित र संख्येयप्रदेशत्वसाधने हेतोरसिद्धि: परिहृता वेदितव्या । तथा योग्यतामं - तरेण धर्मादीनां शश्वत्तद्व्याप्तिविरोधात् परमाणुवत् कालावद्वा तद्व्याप्तिः साधयिष्यते
चाग्रतः ।
*
जीव नियम से लोक - पूरण अवस्था में सम्पूर्ण मूर्तिमान् द्रव्यों के साथ युगपत्सम्बन्ध कर लेता है, इस प्रकार सिद्धान्त का सदभाव होने से स्याद्वादियों के यहां उस जीव का युगपत् सम्पूर्ण मूत द्रव्यों के साथ संयोग होना विरुद्ध नहीं पड़ता है क्योंकि लोकपूररण के अतिरिक्त शेष अवस्थताओं
भी जीव के उस सर्वमूर्तिमद्रव्य सम्बन्ध की योग्यता का व्यवस्थापन होजाता है । इस कथन करके धर्म और अधर्म के सभी प्रकारों से लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेशों पर व्यापजाने के समान एक जीव के भी उस लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेशों पर व्यापने की योग्यता स्थित होजाती है, इस कारण असंख्येय प्रदेशों के सहितपना साधने पर हेतु के स्वरूपासिद्ध दोष का परिहार कर दिया गया समझ लेना चाहिये क्योंकि तिस प्रकार लोक व्यापकपन की योग्यता के विना धर्मादिकों के सर्वदा उस लोकमें व्यापकपन का विशेष होजावेगा जैसे कि पुद्गल परमाणु प्रथवा कालागु के लोक में व्यापकपन की योग्यता का विरोध है, और भी अग्रिम ग्रन्थों से ( में ) इन धर्म आदिकों का उस लोक में व्यापकपन साध दिया जावेगा, यहाँ इतना ही कथन पर्याप्त है । धर्माधर्मैक - जीवा : ( पक्ष ) असंख्येय- प्रदेशाः ( साध्य ) प्रतिप्रदेशं तावदसंख्येय - लोकाकाशव्याप्तियोग्यत्वात् ( हेतु ) इस अनुमान का हेतु पक्ष में विद्यमान है, जो कि अपने साध्य को पक्ष में साध देता है ।
अथाकाशस्य कियंतः प्रदेशा इत्याह ।
अब महाराज यह बताओ कि आकाश द्रव्य के कितने प्रदेश हैं ? ऐसी जिज्ञासा होने पर सूत्रकार उमास्वामी महाराज अग्रिम सूत्र को कहते हैं
आकाशस्यानंताः ॥ ६ ॥
आकाश द्रव्य के अनन्त प्रदेश हैं । अर्थात् - यहां अनन्त पद से जिन दृष्ट कोई मध्यम अनन्तानन्त ग्रहण करना चाहिये, अनन्त नाम को एक संख्या विशेष है । जिसका अन्त नहीं श्रावे ऐसा अनन्त यहां अभीष्ट नहीं है । उत्कृष्ट असंख्याता संख्यात से एक बढ़ा देने पर ही जघन्य अनन्त होजाता है, केवलज्ञान या श्रुतज्ञान की अपेक्षा इकईसों भी संख्याओं का परिमाण किया जा सकता है, कोई शक्यता नहीं है । हां अक्षय प्रनादि अक्षय अनन्त को उसी स्वरूप से जान लेना या गिन