SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 93
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्लोक - वार्तिक यह हेतु पक्ष में वर्त रहा है, प्रसिद्ध हेत्वाभास नहीं है क्योंकि हेतु को साधने वाले दूसरे अनुमान का सद्भाव है | लीजिये, लोकाकाश ( पक्ष ) सर्वदा असंहार धर्मवाला है, ( साध्य ) अजीव होते सन्ते अमूर्त द्रव्य होने से ( हेतु) अलोकाकाश के समान ( अन्वय दृष्टान्त ) । श्रलोकाकाश कदाचित् भी संहार धर्म वाला नहीं है, क्योंकि अलोकाकाश को संहार धर्मी मानने पर सदा परममहत्त्व परिमाण के प्रभाव का प्रसंग होजायगा, कदाचित् भी संकुचने वाला पदार्थ सदा परम महापरिमाण का श्राश्रय नहीं बना रह सकता है, अतः लोकाकाश श्रनन्त- प्रदेशी नहीं है. यह सिद्ध हुआ तथा वह लोकाकाश ( पक्ष ) संख्याते प्रदेशों वाला भी नहीं है ( साध्य ) । क्योंकि लोकाकाश के प्रदेशों की एक, दो, तीन, चार, सौ, पांचसौ, हजार, लाख, कोटि, आदि गिनती करके अच्छी संख्या करने के लिये किसी की सामर्थ्य नहीं है ( हेतु ), अलोकाकाश के ही सम न ( अन्वय दृष्टान्त ) । इस प्रकार उस लोकाकाश के अनन्तप्रदेशीपन और संख्यात - प्रदेशीपन का सद्विचार नहीं किया जा सकता है, परिशेष से श्रसंख्यात प्रदेश वाला ही लोकाकाश सिद्ध होजाता है । ७६ भावार्थ- संख्या - प्रमाण के संख्यात, असंख्यात और अनन्त तीन भेद हैं, तिनमें असंख्य और अनन्त के परीत, युक्त और द्विकवार यो तीन भेद हैं । उक्त सातसंख्यायों के जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट, यो तीन तीन भेद कर इकईस भेद वाला संख्या- मान है, इन में से मध्यम असख्याता संख्यात का विशेष भेद यहाँ लिया गया है । तिस कारण से इस सूत्र द्वारा यह सिद्ध हुआ कि धर्म, अधर्म, और एक जीव. द्रव्य तो ( पक्ष ) असंख्यात प्रदेश वाले हैं ( साध्य ) । क्योंकि उतनी ही प्रसंख्याता संख्यात रूप संख्या को धार रहे श्रसंख्यात प्रदेश वाले लोकाकाश के प्रत्येक प्रत्येक प्रदेश पर इन तीन द्रव्यों के व्यापने योग्यता है (हेतु), अर्थात् - जिसने ही धर्म आदि के प्रदेश हैं। ठीक उतने ही लोकाकाश के प्रदेश हैं, जो तिस प्रकार साध्य वाला नहीं है । यानी प्रसंख्यातप्रदेशी नहीं है, वह तिस प्रकार हेतुमान् नहीं है, यानी लोकाकाश को व्यापने की योग्यता नहीं रखता है । जैसे कि एक परमाणु ( व्यतिरेकदृष्टान्त ) इस प्रकार हमारा हेतु अन्यथानुपपत्ति का सद्भाव होने से निर्दोष है। प्रसिद्धि, व्यभिचार आदि कोई भी दोष इस हेतु में नहीं है । नन्वत्र जीवस्यैकविशेषणं किमर्थमित्यारे कायामिदमाह । यहाँ किसी की शंका है कि सूत्रकार ने इस सूत्र में जीव का विशेषण 'एक' किस लिये दिया । इस प्रकार आशंका होने पर ग्रन्थकार इस समाधान को कहते हैं एक जीववचः शक्तेर्ना संख्येयप्रदेशता । नानात्मनामनंतादिप्रदेशत्वस्य संभवात् ॥ ४ ॥ सूत्र में एक जीव के कथन की सामर्थ्य से सिद्ध होजाता है, कि अनेक जीवों को असंख्यात प्रदेशीपना नहीं है । नाना जीवों के तो अनन्त आदि प्रदेश होते सम्भवते हैं । अर्थात् - यहाँ आदि पद घटित किया जा सकता है कि जघन्य युक्तानन्त प्रमाण अभव्य जीवों के मिल कर सम्पूर्ण प्रदेश मध्यमयुक्तानन्त प्रमाण होजाते हैं । समस्त सिद्धों के प्रदेश इन से भी अनन्तानन्त गुणे मध्यम अन
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy