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________________ पंचम - अध्याय परिशेषाद संख्येयप्रदेशत्वसिद्धिः । तथाहि न तावल्लोकाकाशमनंतप्रदेशं शश्वदसंहरणधर्मत्वे सति सावधित्वात् पंचाणुकाकाशवत् । असंह रणधर्मत्वादित्युच्यमाने ऽलोकाकाशेन व्यभिचार इति सावधित्ववचनं, सावधित्वादित्युक्तेपि पुद्गलस्कंधेनानं तपरमाणुकेना ने कांतो माभूदिति शश्वदसंहरण धर्मकत्वे सतीति विशेषणं । ७५ परिशेष न्याय से लोकाकाश के प्रसंख्यात प्रदेशीपन की सिद्धि होजाती है । उसी को विशदरूप से यों समझिये कि सब से पहिले लोकाकाश श्रनन्तप्रदेशवाला तो नहीं है, ( प्रतिज्ञा ) सर्वदा संहार धर्म से रहित होते संते वधिसहितपना होने से ( हेतु ) पांच प्रणुओं करके बने पंचाणुक से घिरे हुए पाँच प्रदेशी श्राकाश के समान ( श्रन्वयदृटान्त ) | यह अनुमान प्रशस्त है, यदि वैशेषिकों के मतानुसार पंचाणुक दृष्टान्त लिया जायगा तो एक सौ वीस परमाणुत्रों का पंचारणुक माना जायगा क्योंकि दो परमाणुओं का एक द्वयरगुक और तीन द्वरकों का एक अणूक तथा चार त्र्यकों का एक चतुररणुक एवं पांच चतुररणुको का एक पंचारणुक । यों एक पंचारक ने आकाश के अधिक से अधिक एक सौ वीस प्रदेशों को घेर लिया है, प्रस्तु, लौकिक या परीक्षकों की समानबुद्धि का विषय होरहा किसी भी ढंग का पंचारणुक दृष्टान्त बना लिया जाय । इस अनुमान में कहे गये हेतु के यदि केवल असंकोचधर्मपन इतने विशेषण दल को ही हेतु कहा जायगा, तब तो अलोकाकाश करके व्यभिचार होजायगा | देखिये अलोकाकाश संहारधर्मवाला नहीं है, किन्तु अनन्त - प्रदेश वाला है, अतः हेतु के रहने पर प्रौर साध्य के नहीं ठहरते हये व्यभिचार दोष हुआ । इस व्यभिचार की निवृत्ति के लिये हेतु का विशेष्य दल अवधिसहितपना कहा गया है, अलोकाकाश अवधिसहित नहीं है, श्रवधिसहितपना इतना केवल विशेष्यदल के कथन करने पर भी अनन्त परमाणु वाले पुद्गल स्कन्ध करके व्यभिचार नहीं होजावे, इस लिये सर्वदा असंह रणधर्मपना होते सन्ते ऐसा विशेषण दल प्रयुक्त कियागया है । अनन्त परमारग से बना हुआ पुलस्कन्ध घड़ा या लड्डू अवधिसहित है किन्तु अनन्तप्रदेशीपन के प्रभाव वाला नहीं है, सदा संहार धर्मं वाला होते इस विशेषण से व्यभिचार का वारण होजाता है, क्योंकि घड़ा, लड्डू, आदि पुद् गल स्कन्ध तो संकुचित होजाने वाले या नाशशील हैं । यों हम जैनों का प्रयुक्त हेतु निर्दोष है। न चैतदसिद्धं साधनसद्भावात् । शश्वदसंहरणधर्मकं लोकाकाशमजीवत्वे सत्यमूर्तद्रव्यत्वाद लोकाकाशवत् । न ह्यलोकाकाशं कदाचिन्संहरण धर्म सर्वदा परममहत्त्वाभावप्रसंगात् तथा न संख्यातप्रदेशं लोकाकाशं गणनया प्रसंख्यातुमशक्यत्वा दलोकाकाशवदेवेति नानंत संख्यातप्रदेशत्वं तस्य विभावयितुं शक्यं । परिशेषाद संख्येयप्रदेशं लोकाकाशं सिद्धं । ततो धर्माधर्मैकजीवा स्त्वसंख्येयप्रदेशाः प्रतिप्रदेशं तावदसंख्येयप्रदेशलोकाकाशव्याप्तियोग्यत्वात् यन्न तथा • तन्न तथा यथैकपरमाणुरिति निरवद्यो हेतु:, अन्यथा नुपपत्तिसद्भावात् । I
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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