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पंचम अध्याय वैशेषिकों के यहाँ मानी गयी यह पाकजपदार्थों की उत्पत्ति की प्रक्रिया व्यवस्थित नहीं हो पाती है। भावार्थ-परमाणु में ही पाक होने को मानने वाले पीलुपाक-वादी वैशेषिकों के यहाँ तथा परमाणु और अवयवी दोनों में पाक होने को कहने वाले पिठर -पाक--वादी नैयायिकों के यहाँ पाक-जन्य रूप आदिकों के उपजने की यह प्रक्रिया है कि प्रथम अग्नि-संयोग से परमाणुओं में क्रिया उपजती है, क्रिया होजानेसे दूसरे परमाणु करके विभाग होजाता है, उस विभाग से द्वषणुक को बनाने वाले संयोग का नाश होजाता है, पश्चात्-द्वघणुकों का नाश होजाता है, उसके पीछे परमाणु में श्याम आदिका नाश होजाता है, २--पुनः परमाणु में रक्त आदि की उत्पत्ति होती है, ३-तत्पश्चात्द्वघरणुक द्रव्य को बनाने के अनुकूल लाल परमाणुषों में क्रिया उपजती है, ४-पुनः विभाग होता है, ५ पश्चात्-परमारणुओं में पहिले होरहे संयोग का नाश होता है, ६-पीछे द्वषणुकों को आरम्भ करने वाला संयोग उपजता है, ७-उसके पीछे द्वषणुकों की उत्पत्ति होती है, उसके पीछे द्वषणुकोंमें रक्त आदि की उत्पति होती है । इसो प्रकार और भी कई प्रक्रियायें हैं।
नयायिकों के यहां भी पाकज रूप, रस, गन्ध, स्पर्शों की उत्पत्ति करने में न्यून--अधिक, वैसी प्रक्रिया इष्ट की गया है, ये अवयवी में भी पाक को मानते हैं किन्तु यह सब प्रमाण-वाधित है अवे में घड़ा या भट्टा में ईट विचारी टूट फूट कर परमाणुस्वरूप टुकड़े डुकड़े नहीं होजाते हैं यदि कोई ईट पिघल जाय या विखर जाय तो फिर वह वैसी ही छिन्न, भिन्न, होकर पक जाती है क्वचित् होने वाला कार्य सर्वत्र के लिये लागू नहीं होता है, अतः यह वैशेषिकों की प्रक्रिया व्यर्थ घोषणामात्र है। बात यह है कि अग्निसंयोग से नहीं किन्तु वैशेषिकों के मतानुसार मानी गयी अग्नि नामक द्रव्य से और जैन मतानुसार अग्नि नामक अशुद्ध द्रव्य या पर्याय से घट, ईट, आदि में पाकजन्य रूप, रस, आदिक परिणाम उपज जाते हैं । जगत् में अपने अपने विशेष हेतुत्रों से सम्पूर्ण परिणाम होरहे प्रतीत किये जाते हैं। पूर्वोत्तराकारपरिहारावाप्तिस्थितिलक्षणः परिणामः, जैनसिद्वान्त में पूर्वआकार का त्याग और उत्तर आकार का ग्रहण तथा ध्रौव्य अंशों करके स्थिति होने को परिणाम कहागया है, पूर्व-आकारों का परित्याग और उत्तर--वर्ती आकारों की प्राप्ति होजाने से घट में पहिले के पाकजन्य नहीं ऐसे अपाकज रूप आदिका परित्याग करके पुनः अग्नि के द्वारा पाकज रूप आदिक उपज जाते हैं यों तिस प्रकार प्रत्यक्ष प्रमाण से दीख जाने की कोई वाधा नहीं पाती है तिसकारण यहाँ उष्णता की अपेक्षा र ता हुआ अग्निसंयोग नामक वैशेषिकों का दृष्टान्त देना ठीक नहीं है क्योंकि इस दृष्टान्त की सामर्थ्य से प्रात्मा के क्रियाहेतुपन की सिद्धि होजाने पर वैशेषिकों के मन्तव्य से विपरीत होरहे सिद्धान्त की प्रसिद्धि होजाती है, अतः वैशेषिकों के ऊपर प्रतीतिवाधा और विपरीतप्रसिद्धि का आपादन किया गया समझो।
अनुष्णाशीतरूपश्चाप्रेरकोनुपघातकः कुटः प्राप्तः कथं रूपायुच्छेदोत्पादकारणं ॥ ३८ ॥