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________________ ... श्लोक-वातिक रक्ति या पकता को उपजा देता है, साथ में अग्नि के भी अनेक विकार कर देता है । अग्नि पर मोटी रोटी को सेकने से अग्नि की दशा को निहारिये वह निर्वल, निस्तेज, होजाती है किन्तु वैशेषिक अग्नि में विकार होने को स्वीकार नहीं करते हैं, अतः साध्यसम दोष लागू होता है यहाँ तक ग्रन्थकार वैशेषिकों के ऊपर विषमता, अस्मदिष्ट-सिद्धि और साध्यसमता का प्रापादन कर चुके हैं, अब चौथी प्रतीतिवाधा को उठा रहे हैं ।। संयोगार्थान्तरं वन्हेः कुपदेश्च तदाश्रितः। समवायात्ततो भिन्नप्रतीत्या वाध्यते न किं ॥३२॥ घटादिष्वामरूपादीन विनाशयति स स्वयं । पाकजान् जनयत्येतत्प्रतिपद्येत कः सुधीः ॥ ३३ ॥ उस अग्नि या घट आदि के पाश्रित होरहा अग्नि या घट आदि का संयोग तो समवायसम्बन्ध होजाने के कारण भला उन आधारों से भिन्न माना गया है तब तो कथंचित् अभिन्न होने की प्रतीति करके वह सर्वथा भिन्न संयोग क्यों नहीं वाधित हो जावेगा ? थोड़ा इस बात को विचारो कि वह अग्निसंयोग स्वयं घट, ईट आदि में कच्चे, रूप, रस, आदिकों को विनाश देता है और पाक से जायमान पक्के रूप,रस, आदिको उत्पन्न कर देता है कौन बुद्धिमान् ऐसी अयुक्त बात की प्रतिपत्ति कर लेवेगा? अर्थात्-कोई नहीं । अग्नि के कार्य को बेचारा निर्गुण, निष्क्रिय अग्निसंयोग नहीं कर सकता है। न चैषा पाकजोत्पत्तिप्रक्रि । व्यवतिष्ठते । वन्हेः पाकजरूपादिपरिणामाः कुटादिषु ॥ ३४ ॥ स्वहेतुभेदतः सर्वः परिणामः प्रतीयते। पूर्वाकारपरित्यागादुत्तराकारलब्धितः॥३५॥ कुटेऽपाकजरूपादिपरित्यागेन जायते। वन्हेः पाकजरूपादिस्तथा दृष्टेरबाधनात् ॥३६ ॥ नौष्ण्यापेक्षस्ततो वन्हिसंयोगोऽत्र निदर्शनं । नुः क्रियाहेतुतासिद्धौ विपरीतप्रसिद्धितः ॥३७॥
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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