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________________ पंचम-अ याय वैषम्यादस्मदिष्टस्य सिद्धेः साध्यसमत्वतः। प्रतीतिवाधनाच्चैतद्विपरीतप्रसिद्धितः ॥२८॥ साध्ये क्रियानिमित्तत्वे दृष्टांतो ह्यक्रियाश्रयः । स्यादेव विषमस्तावदग्निसंयोग उष्णभृत् ॥ २६ ॥ पूनः अपि वैशेषिक वोलते हैं कि उष्णता की अपेक्षा रखता हुआ अग्नि का संयोग जिस प्रकार घट आदिकों में पाक से जायमान रूप, रस, आदिकों को उपजा देता है किन्तु वह वन्हिसंयोग अपने प्राधार भूत अग्नि में रूप आदिकों को नवीन नहीं उपजाता है, उसी प्रकार आत्म-संयोग आदि गुण भी अन्य हाथ, पांव, आदि में क्रिया को बना देते हैं परन्तु अपने आधार होरहे प्रात्मा में क्रिया को नहीं उपजा पाते हैं क्योंकि उन आत्म--संयोग, प्रयत्न, आदि की इसी प्रकार सामर्थ्य है, कार्यकारणभाव के नियतपन में आप जैन भी व्यर्थ झगड़ा नहीं उठावेंगे। प्राचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि निश्चय से आपका दृष्टान्त विषम पड़ता है उससे तो हमारे ही इष्ट की सिद्धि होजाती है । वैशेषिकों के ऊपर साध्य-सम दोष भी लगता है और प्रतीतियों से वाधा आती है तथा वैशेषिकों के इस अभीष्ट मन्तव्य से विपरीत होरहे सिद्धान्त की अच्छी सिद्धि होजाती है। देखिये प्रकरण में क्रिया का निमित्तपना साध्य किया जा रहा है उस अवसर पर क्रिया का प्राश्रय नहीं ऐसा अग्निसंयोग दृष्टान्त दिया जा रहा है, अत: उष्णता के साथीपन को धार रहा यह अग्निसंयोग विषम दृष्टान्त है। विषमदृष्टान्त इष्ट साध्य को नहीं साध पाता। यथा च स्वाश्रये कुर्वन विकारं कलशादिषु। करोति वन्हिसंयोगः पुंसो योगस्तथा तनौ ॥३०॥ इत्यस्मदिष्टसंसिद्धिः क्रियापरिणतस्य नुः काये क्रियानिमित्तत्वसिद्धेः संयोगिनि स्फुटं॥ ३१ ॥ दूसरी बात यह है कि अग्नि-संयोग जिस प्रकार अपने प्राश्रय होरहे अग्नि में विकार को कर रहा सन्ता ही घट, ईट, रन्ध-रहे भात आदि में विकार को कर देता है, उसी प्रकार प्रात्मा का संयोग भी आत्मा में क्रिया को करता सन्ता ही शरीर में क्रिया को कर देवेगा, इस प्रकार क्रियापरिणत आत्मा के संयोगी शरीर में क्रिया के निमित्तपन की सिद्धि होजाने से. हम जैनों के इष्ट साध्य की भली सिद्धि होजाती है। प्रात्मा का क्रियासहितपना मन्दबुद्धि बाल गोपालों तक में स्पष्ट रूप से परिज्ञात होरहा है । भावार्थ-अवा या भद्दा में लग रही आग का संयोग घट या ईट में कठिनता,
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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