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________________ ६५४ श्लोक-वार्तिक दानकर्ता जीव जो श्रद्धा आदि गुणों से अन्वित हो रहा शुद्ध परिणामों वाला है वह दानक्रिया से उत्कृष्ट पुण्य को प्राप्त कर सकेगा हाँ ईर्षा, द्वेष, आदि दोषों से अन्वित हो रहा अशुद्धात्मा है वह दाता तो बड़े भारी पापास्रव को प्राप्त करता है हां जो गुण और दोष दोनों से अन्वित हो रहा है । वह दाता अशुद्ध परिणतियों के हो जाने पर बहुत प्रकार के मध्यम पुण्य और पापकर्मों के आस्रव को यथायोग्य प्राप्त कर लेता है यों दाता की विशेषता से दान फल की विशेषता का विशेषरूप से निर्णय कर दिया गया है। दत्तमन्नं सुपात्राय स्वल्पमप्युरुपुण्यकृत् । मध्यमाय तु पात्राय पुण्यं मध्यममानयेत् ॥८॥ कनिष्ठाय पुनः स्वल्पमपात्रायाफलं विदुः। पापापापं फलं चेति सूरयः संप्रचक्षते ॥१०॥ पात्रों की विशेषता इस प्रकार है कि श्रेष्ठ पात्र के लिये दिया गया अन्न या औषधि, ज्ञान, आदिक थोड़े भी होंय परिपाक में विपुल पुण्य का आस्रव कराते हैं हां मध्यम पात्र के लिये दिये गये अन्न आदि तो मध्यम पुण्य को प्राप्त करायेंगे पुनः जघन्य पात्र के लिये दिये गये अन्न आदि तो दाता को स्वल्प पुण्य का आस्रव करायेंगे किन्तु व्रतहीन और दर्शनहीन अपात्र के लिये दिया गया द्रव्य निष्फल ही होता है ऐसा विद्वान् जान रहे हैं अथवा अपात्रदान का फल पाप और अपाप भी हो जाता है अर्थात् हिंसक या व्यसनी जीवों के लिये उनके अनुकूल हो रहे दूषित द्रव्यों के देने से महान् पाप का आस्रव होता है और उन व्यसनी या दरभिमानी जीवों के लिये योग्य द्रव्य देने वाले को पाप नहीं लगना बस यही फल पर्याप्त है । सम्यग्दर्शन रहित होकर उपरिष्ठात् व्रती बन रहे कुपात्र में दान करने से कुभोगभूमि के सुख मिलना फल कहा है। इस प्रकार आचार्य महाराज उक्त सूत्र में दान का निर्दोष रूप से बढ़िया व्याख्यान कर रहे हैं। भावार्थ-गृहस्थ की कतिपय क्रियायें ऐसी हैं जिनके करने पर पुण्य नहीं लगता है किन्तु नहीं करने पर पाप लग बैठता है जैसे कि बाल-बच्चों, को पालने या शिक्षित करने से माता-पिता को कोई पुण्य नहीं लगता है हाँ उक्त कर्तव्य के नहीं पालने से संक्लेश, अपकीर्ति, कर्तव्यच्युति अनुसार पापबंध अवश्य होगा, तथा गृहस्थ के कतिपय कर्म ऐसे भी हैं जिनके करने पर पाप नहीं लगता है किन्तु नहीं करने पर पुण्य लग बैठता है जैसे कि व्यापार में एक रुपये पर चौअन्नी, दुअन्नी, का मोटा लाभ उठा रहे व्यापारी को कोई पाप नहीं लगता है बेचने वाले और खरीदने वाले को चाहे जो कुछ राजी होय किन्तु सन्तोषी व्यापारी यदि थोड़े लाभ से ही बेचे तो संतोष, परोपकार, मितव्यय, सत्कीर्ति, वात्सल्य, अनुसार हुई आत्मविशुद्धि से उसको पुण्य अवश्य हो जायेगा । यहाँ पुण्यपाप पद से तीव्र अनुभाग शक्ति वाले पुण्यपाप, लिये जाँय यों तो गृहस्थ की चाहे किसी भी क्रिया से पुण्य पाप यथा योग्य लगते ही रहते हैं । पहिले गुणस्थान से लेकर दशवें तक अनेक पुण्यपाप कर्मों का बन्ध होता रहता है। सनातनी पण्डितों के यहाँ भी “नित्यनैमित्तिके कुर्यात् प्रत्यवायजिहासया” तथा “अकुर्वन्विहितं कर्म प्रत्यवायेन लिप्यते” यों नित्य नैमित्तिक कर्मों करके कोई पुण्य की प्राप्ति नहीं मानी गई है। हाँ संध्यावन्दन आदि कर्मों को नहीं करने वालों को पापबंध अवश्य हो जायेगा, प्रत्यवायाभाव भले ही फल समझ लिया जाय राजा करके नियत करी गई धाराओं ( कानूनों ) के पालने से प्रजाको कोई इनाम या सार्टीफिकिट नहीं मिलता है हाँ कानून नहीं पालने वालों को दण्ड अवश्य प्राप्त होता है । यवनों के यहाँ व्याज नहीं खाने वालों को कोई खुदा की ओर से पुण्य नहीं बटता है हाँ व्याज खाने वालों का नरक जाना उन्होंने माना
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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