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________________ सप्तमोऽध्याय निकृष्टमध्यमोत्कृष्टविशुद्धिभ्यो विपर्ययः । तेभ्यः स्यादिति संक्षेपादुक्त सूरिभिरञ्जसा ॥५॥ पात्रों का प्रतिग्रह करना, ऊंचा स्थान देना, पादप्रक्षालन करना, पूजा रचना आदिक संक्लेश रहित हो रही नवधा विधियों से तो दाता को सातिशय पुण्य का आस्रव होता है तथा बहभ बहुभाग विशुद्धि और किंचित्संक्लेश करके युक्त हो रहे प्रतिग्रह आदि विधियों से दानकर्ता जीव को मध्यम श्रेणी के पुण्य का आस्रव होना कहा है एवं अत्यल्पविशुद्धि और बढ़े हुये संक्लेश करके युक्त हो रहे पात्र प्रतिग्रह, आदि विधियों से दाता को स्वल्प पुण्य का आस्रव होता है । इस प्रकार विधियों की विशेषता से यों उक्त प्रकार उत्तम, मध्यम, जघन्य जाति के पुण्यों का आस्रव होना कह दिया गया है । सूत्र में विधियों की विशेषता से जो उस दान का विशेष कहा था उसका अभिप्राय यही है कि यों विशेष रूप से दानजन्य गुण्यास्रव के भेद कर दिये जाते हैं । निकृष्ट विशुद्धि, मध्यम विशुद्धि और उत्कृष्ट विशुद्धियों से किये गये उन प्रतिग्रह आदि विधियों से दाता को विपर्यय होगा यानी स्वल्प पुण्य का आस्रव, मध्यम पुण्य का आस्रव और उत्कृष्ट अनुभागवाले पुण्यका आस्रव होगा। इस प्रकार आचार्य महाराज सूत्रकार ने संक्षेप से उक्त सूत्र में तात्त्विकरूप करके यों निरूपण कर दिया है। अर्थात् श्री समन्तभद्राचार्य ने “विशुद्धि संक्लेशाङ्गं चेत्स्वपरस्थं सुखासुखं, पुण्यपापास्रवो युक्तो न चेयर्थस्तवार्हतः” यों आप्तमीमांसा में विशुद्धि और संक्लेश के अगों को पुण्य और पाप का आस्रव इष्ट किया है। दश गुणस्थान में भी ईषत्संक्लेश पाया जाने से ज्ञानावरण आदि पाप प्रकृतियों का आस्रव होता रहता है और पहिले गुणस्थान में भी स्वल्प विशुद्धि अनुसार कतिपय पुण्य प्रकृतियां आ जाती हैं। प्रथम गुणस्थान से प्रारम्भ तेरहवें गुणस्थान तक के जीव दान कर सकते हैं, जो जीव सर्वथा संक्लेश रहित हैं उनके उत्कृष्ट विशुद्धि है हां जो किंचित् संक्लेश युक्त हैं उनके मध्यमविशुद्धि पाई जाती है । बढ़े हुये संक्लेश से परिपूर्ण हो रहे जीवों के निकृष्ट विशुद्धि हो सकती है अथवा थोड़ी भी विशुद्धि पायो जा सकती है । इस प्रकार दान की विधि से हुये विशेष का ग्रन्थकार ने समर्थन कर दिया है। गुणवृद्धिकरं द्रव्यं पात्र पुण्यकृदर्पितं । दोषवृद्धिकरं पापकारि मिश्र तु मिश्रकृत् ॥६॥ द्रव्य की विशेषता यों है कि पात्रों में गुणों की वृद्धि को करने वाला द्रव्य यदि अर्पित किया जायेगा तो वह दाता को पुण्य का आस्रव करने वाला है और शारीरिक दोषों या आत्मीय दोषों की वृद्धि को करने वाला द्रव्य यदि पात्रों के लिये समर्पित किया जावेगा तो दाता को वह द्रव्यपापास्रव का करानेवाला होगा, हाँ कुछ गुणों की और कुछ दोषों की यों मिश्रित हो रही वृद्धि को करने वाला दव्य तो दाता को पुण्यपाप में मिश्रण का आस्रावक है । यह द्रव्य की विशेषता से दानफल की विशेषता हुई। दाता गुणान्वितः शुद्धः परं पुण्यमवाप्नुयात् । दोषान्वितस्त्वशुद्धात्मा परं पापमुपैति सः ॥७॥ गुणदोषान्वितः शुद्धाशुद्धभावौ समश्नुते । बहुधा मध्यमं पुण्यं पापं चेति विनिश्चयः ॥८॥ कर ते
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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