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________________ सप्तमोऽध्याय ६५५ है। इत्यादि युक्तियों से अपात्र दान का फल पाप और अपाप समझ लिया जाय जैसे कि किसी कुपात्र दान से पुण्य और अपुण्य हो जाते हैं । वेश्याओं के सुख, रईसों के पशु पक्षियों के सुखों की प्राप्ति, पापमिश्रित पुण्य से हो जाती है इसी प्रकार क्वचिद्धार्मिकों को दुःख या सज्जनों को क्लेश की प्राप्ति भी पूर्वजन्मार्जित पुण्यमिश्रित पाप से हो जाती है । यह पुण्यास्रव या पापास्रव का अचिन्तनीय कार्य कारणभाव विशुद्धि संक्लेशाङ्गों पर अवलम्बित है जो कि परिशुद्ध प्रतिभावालों को स्वसंवेद्य भी है। शेष युक्ति, आगम, गम्य है । “पापापायं" ऐसा पाठ होने पर तो आचार्य महाराज दान का फल पाप के अपाय हो जाने को भी बखानते हैं। यों अर्थ कर सकते हैं। सामग्रीभेदाद्धि दानविशेषः स्यात् कृष्यादिविशेषाद्वीजविशेषवत् । दान की सामग्री के भेद से दानक्रिया में अवश्य विशेषता हो जायेगी जैसे कि कृषी यानी जोतना अथवा पृथिवी, जल, घाम आदि कारणों की विशेषता से बीज के नाना प्रकार फलविशेष हो जाते हैं । नागपुर का संतरा, भुसावल का केला, बनारसी आम, काबुली अनार, सहारनपुर का गन्ना, छोटा खीरा आदि पदार्थ उन नियत स्थानों में ही सुस्वादु, कोमल फलित होते हैं अन्यस्थानों में बीज बो देने से वैसे फल की प्राप्ति नहीं होती है इसी प्रकार ऋतुओं, मेघ जल, सूर्यातप, द्वारा भी अनेक अन्तर पड़ जाते हैं । तद्वत् विधि आदि की सामग्री द्वारा हुई दान क्रिया के विशेषों अनुसार दानफल का तारतम्य है। निरात्मकत्वे सर्वभावानां विध्यादिस्वरूपाभावः क्षणिकत्वाच्च विज्ञानस्य तदभिसंबंधाभावः। न्यायपूर्वक युक्तिपूर्ण जैन सिद्धान्त का प्रतिपादन कर रहे श्री विद्यानन्द स्वामी इस सातवें अध्याय के प्रमेय की स्याद्वाद सिद्धान्त अनुसार ही सिद्धि हो सकने का प्रतिपादन करते हैं कि हिंसा करना या उसका त्याग करना एवं विशेष सामान्य भावनायें भावते रहना तथा अतीचारों के प्रत्याख्यान का प्रयत्न करना और दान अथवा उसके विधि आदिक अनुसार हुये फल विशेषों की संपत्ति ये सब अनेकान्त का आश्रय कर स्याद्वादसिद्धान्त में ही सुघटित होते हैं। परिणामी हो रहे नित्यानित्यात्मक जीव के तो अनगार धर्म और उपासकाचार पल जाते हैं किन्नु बौद्ध, नैयायिक, सांख्यों के यहाँ एकान्त पक्ष अनुसार व्रत विधान नहीं आचरा जा सकता है । देखिये नैरात्म्यवादी बौद्धों ने प्रथम तो आत्मद्रव्य को ही स्वीकार नहीं किया है तथा स्बलक्षण या विज्ञान को उन्हों ने स्वभाव, क्रिया, परिणतियों, से रहित स्वीकार किया है। ऐसी दशा में सम्पूर्ण पदार्थों को निरात्मक, निस्स्वरूप, मानने पर बौद्धों के यहां विधि द्रव्य आदि के स्वरूपों का ही अभाव हो जाता है। सात्मक, स्वभाववान् , पदार्थ तो प्रतिग्रह कर सकता है मुनि महाराज को ऊंचे आसन पर बैठा सकता है या प्रतिग्रहीत हो जाता है, ऊंचे आसन पर बैठ 'जाता है, स्वभावों से शून्य हो रहा क्या दान देवे ? और क्या लेवे ? दूसरी बात यह है कि बौद्धों ने विज्ञान को ही आत्मा स्वीकार किया है, एक क्षण ही ठहर कर दूसरे क्षण में नष्ट हो चुके विज्ञान के क्षणिक हो जाने के कारण उन दान ग्रहण, स्वर्गप्राप्ति आदि परिणतियों का चहुं ओर से सम्बन्ध नहीं हो पाता है कारण कि पूर्वक्षण और उत्तर क्षण में पाये जा रहे विषयों के संस्कार अनुसार अवग्रह करने में समर्थ हो रहे एक अन्वित ज्ञान का अभाव है। सत् का सर्वथा विनाश और असत् का ही उत्पाद मान रहे बौद्धों के यहां पूर्वोत्तर समीपवर्ती परिणामों का अन्वय नहीं माना गया है। अर्थात् क्षणिक विज्ञान का पक्ष लेने पर यह पात्र है, ऋषि है, तपःस्वाध्याय में तत्पर रहेंगे मेरे पहिले .
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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