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________________ ६४४ श्लोक-वार्तिक ये पांचवें शील के अतीचार हैं । इस ग्रन्थ में यह बड़ा सौष्ठव है कि श्री विद्यानन्द स्वामी ने ही वार्तिक बनाये हैं और उन्होंने ही विवरण लिखा है अतः स्वोपज्ञ अलंकार स्वरूप विवरण में ही वे वार्तिक से कुछ शेष रह गये पद को जोड़ देने की ये प्रेरणा कर रहे हैं जो वे कहें वह हमको शिरसा मान्य है। षष्ठस्य शीलस्य केऽतीचारा इत्याह; यहाँ कोई प्रश्न उठाता है कि सूत्रकार महाराज ने पांच व्रत और सात शीलों में पांच-पांच अतीचार कहने की प्रतिज्ञा की थी तदनुसार पांच व्रत और पांच शीलों के अतीचार कहे जा चुके हैं अब संगति अनुसार छठे उपभोगपरिभोगपरिमाण शील के अतीचार कौन से हैं ? बताओ। ऐसा विनीत शिष्य का जिज्ञासा पूर्वक प्रश्न उतरने पर तत्त्वनिर्णता सूत्रकार महाराज उत्साहसहित इस अग्रिम सूत्र को स्पष्ट कह रहे हैं। सचित्तसंबंधसंमिश्राभिषवदुःपक्वाहाराः॥३५॥ द्वंद्वसमास के अन्त में पड़े हुये आहार शब्द का पांचों में अन्वय कर देना चाहिये १ सचित्ताहार २ सचित्तसंबन्धाहार ३ सचित्तसंमिश्राहार ४ अभिषवाहार ५ दुःपक्काहार ये पांच भोगोपभोगसंख्यान व्रत के अतीचार हैं अर्थात् “चिती संज्ञाने" धातु से चित्त शब्द बना कर उस चित्त के साथ जो वर्तता है वह सचित्त समझ लिया जाता है । व्रत की एकदेश रक्षा करते हुये किसी जीव का हरितकाय पदार्थ को खा लेना अतीचार है । यद्यपि सचित्त खाने का त्याग कर चुके व्रती का पुनः सचित्त का भक्षण कर लेने पर अनाचार हो जाना चाहिये तथापि अज्ञान या चित्त की अनैकाग्रता से सचित्तभक्षण हो जा भी व्रतरक्षण की अपेक्षा है अतः सचित्ताहार को भी अतीचार में गिना दिया है। तथा सचेतन हो रहे बीज, फलखण्ड, पत्र, अंकुर, आदि करके संसर्ग मात्र किये जा रहे पदार्थ का भक्षण कर लेना सचित्तसंबन्धाहार है । स्वयं अचित्त हो रहा भी आहार दूसरे सचित्तद्रव्य का संघट्टमात्र हो जाने से दूषित हो गया है। एवं सचेतन पदार्थों से संमिलित हो रहे द्रव्य का आहार कर लेना सचित्तसम्मिश्राहार है जिस अचित्तका कि सचित्त द्रव्य के छोटे प्राणियों से पृथग्भाव नहीं किया जा सकता है। छोटे-छोटे वनस्पति कायिक जीवों की अवगाहना घनाङगुल के असंख्यातवें या संख्यातवें भाग मात्र है । छू जाने से ही खाद्य पदार्थ में अनेक जीव आ जाते हैं। बात यह है कि सचित्त संबन्ध में अचित्त के साथ सचित्त का केवल संसर्ग हो जाना विवक्षित है और यहां संमिश्र में अचित्त का सचित्त से अविभागस्वरूप मिल जाना अभिप्रेत है। किसी किसी त्यागी पुरुष के भी भूख, प्यास, की आकुलता हो जाने पर ,मोह या प्रमाद से सचित्त आदि द्रव्यों में भक्षण, पान, लेपन आदि की प्रवृत्ति हो जाती है । कुछ देर तक गलाकर जो सौवीर आदिक बना लिये जाते हैं वे द्रव पदार्थ कहे जाते हैं तथा इन्द्रियों के बल को बढ़ाने वाले उर्द के मोदक, रसायन, वशीकरण पदार्थ, पौष्टिकरस, ये वृष्य हैं । इन में से कोई पदार्थ भले ही अचित्त या शुद्ध भी होंय किन्तु इन्द्रियमदवृद्धि के कारण होने से व्रतियों को इनका त्याग करना चाहिये । अधकच्चा या अतिपक्क पदार्थ का आहार करना दुःपक्काहार है उर्द की दाल या भात आदि को भीतर अधपका रहने देने पर अथवा अधिक गलाकर, जलाकर, खाने से और मोटे चावल, गेहूं की मोटी, गरिष्ठ रोटी, बाटी, भापला, एवं प्रकृति से भारी हो रहे कतिपय फल आदि का सेवन करने से शरीर में अनेक रोग या आलस्य उपजते हैं साथ ही आत्मसंक्लेश हो जाने के कारण धार्मिक क्रियाओं में क्षति पहुंचती है। इस प्रकार उपभोगपरिभोग संख्याव्रत के ये पांच अतीचार है। सह चित्तेन वर्तत इति सचित्तं, तदुपश्लिष्टः संबन्धः, तद्वयतिकीर्णस्तन्मिश्रः । पूर्वेणावि
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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