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सप्तमोऽध्याय
६४५ शिष्ठ इति चेन्न, तत्र संसर्गमात्रत्वात् । प्रमादसंमोहाभ्यां सचित्तादिषु वृत्तिर्देशविरतस्योपभोगपरिभोगविषयेषु परिमितेष्वपीत्यर्थः । द्रवो वृष्यं चाभिषवः, असम्यक् पक्को दुःपक्कः । त एतेऽतिक्रमाः पंच कथमित्याह--
चित्त का अर्थ ज्ञान है । ज्ञान के साथ वर्तता है इस कारण जीवित हो रहा चेतना वाला पदार्थ सचित्त है १ उस सचित्त द्रव्य के साथ पृथक कतु योग्य संसर्ग को प्राप्त हो रहा पदार्थ सचित्त संबद्ध है २ तथा उस सचित्त द्रव्य करके एकरस हो कर मिश्रित हो रहा आहार्य पदार्थ सचित्तसंमिश्र है ३ । यहाँ कोई शंका करता है कि यह सचित्तसंमिश्र तो पूर्ववर्ती सचित्त संबन्ध से कोई विशेषता नहीं रखता है संसर्ग हुये और मिल गये में कोई अन्तर नहीं है । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो न कहना क्योंकि उस सचित्त संबन्ध में केवल स्पर्श कर लेना मात्र संसर्ग है और संमिश्र में दोनों का एकरस होकर मिल जाना है । सिद्ध भगवान् का पुद्गल वर्गणाओं के साथ मात्र संसर्ग है बंध या संमिश्रण नहीं है । बोतल में मद्य या विष का केवल उपश्लेष है हां पेट में खा पी लेने पर उनका शरीरावयवों के साथ संमिश्रण हो जाता है । प्रमाददोष और लोलुपता पूर्ण बढ़े हुये मोह कर के देश विरति वाले श्रावक की उपभोग
और परिभोग के विषयों का परिमाण कर चुकने पर भी सचित्त आदि पदार्थों में प्रवृत्ति हो जाती है यह इसका तात्पर्य अर्थ निकलता है । विशेष यह कहना है कि अप्रतिष्ठित प्रत्येक माने गये आम्रवृक्ष के फल या पत्ता को कोई कोई मन्दबुद्धि पुरुष अचित्त कहते है क्याकि वृक्ष का एक जीव वहां वृक्ष महा रहा आया, टूटा हुआ फल या पत्ता तो उसके आत्मप्रदेश निकल जाने पर अचित्त ही हो गया। इस पर यह समझना चाहिये कि शुष्क, पक्क, तप्त हो जाने पर या आम्ल, तीक्ष्णरसवाले पदार्थ के साथ संमिश्रण हो जाने की दशा में अथवा शिल, चाकी आदि यन्त्रों करके चकनाचूर कर देने पर अचित्त हो जाने की व्यवस्था आगमोक्त है । अप्रतिष्ठित प्रत्येक होने पर भी आम, अमरूद, केला, आदि के फल, पत्तं, शाखा, आदि अवयवों में अन्य भी छोटे छोटे वनस्पति कायिक जीव पाये जाते हैं जैसे कि प्रत्येक कर्म का उदय होने पर भी कर्मभूमि के तिर्यञ्च, मनुष्यों, के शरीर में अनेक त्रसजीव आश्रित हो रहे हैं। श्री गोम्मटसार का परामर्श करने पर वनस्पति कायिक जीवों की छोटी छोटी अवगाहनाओं का निर्णय हो जाता है । एकेन्द्रिय जीवों में पृथिवीकाय, जलकाय, तेजस्काय, वायुकाय के जीवों में ही बादर निगोद का आश्रितपना टाला गया है वनस्पतिकाय में बादर निगोद पाया जाता है। अतः संघट्ट करने पर भी शिल या चाकी के छेदों में घुस गये वनस्पति के उर्द, मूंग, बराबर के टुकड़े भी जब सचित्त सम्भव सकते हैं तो गीले फल, पत्ते, आदिक अवश्य ही सचित्त होने चाहिये । अतः व्रती उन त्यागे हुये सचित्त पदार्थों के आर्द्र फल पत्त आदि का भक्षण नहीं कर सकता है । द्रव पदार्थ और वृषीकरण, बाजीकरण के उपयोगी वृष्यपदार्थ अभिषव हैं। समीचीन रूप यानी अन्यूनानतिरिक्त रूप से नहीं पका हुआ पदार्थ दुःपक्क है। यहां कोई पूंछता है कि वे प्रसिद्ध हो रहे सचित्त आहार आदि ये पांच अतीचार भला किस प्रकार सिद्ध हुये समझ लिये जांय ? ऐसी जिज्ञासा प्रवर्तने पर ग्रन्थकार अग्रिम वार्तिक को कह रहे हैं।
तथा सचित्तसंबंधाहारायाः पंच सृत्रिताः ।
तेऽत्र षष्ठस्य शीलस्य तद्विराधनहेतवः ॥१॥ तथा सचित्तसंबंधाहार आदिक पांच जो यहां सूत्र द्वारा कहे जा चुके हैं वे ( पक्ष ) छठे शील