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सप्तमोऽध्याय
६४३ है । भूख प्यास आदि से कुछ आकुलता उपजने पर ये तीन अतीचार संभव जाते हैं । भूख, प्यास, लगने के कारण अपने जिन पूजा आदि आवश्यक कर्मों में उत्साह नहीं रखना अनादर है । एकाग्रता नहीं रखना स्मृत्यनुए
प्रत्यवेक्षणं चक्षुषो व्यापारः, प्रमार्जनमुपकरणोपकार; तस्य प्रतिषेधविशिष्टस्योत्सर्गादिभिः संबंधस्तेनाप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितदेशे क्वचिदुत्सर्गस्तादृशस्य कस्यचिदुपकरणस्यादानं तादृशे च क्वचिच्छयनीयस्थाने संस्तरोपक्रमणमिति त्रीण्यभिहितानि भवति, तथावश्यकेष्वनादरः स्मृत्यनुपस्थानं च क्षुदर्दितत्वात् प्रोषधोपवासानुष्ठायिनः स्यादिति तस्यैते पंचातीचाराः कुत इत्याह
दया पुरुष का, जन्तु है, अथवा नहीं है, इस प्रकार विचार पूर्वक देखना नेत्र इन्द्रिय का व्यापार है । कोमल उपकरण करके जो उपकार यानी प्रतिलेखन किया जाता है वह प्रमार्जन है । प्रतिषेध से विशिष्ट हो रहे उन प्रत्यवेक्षण और प्रमार्जन दोनों का उत्सर्ग आदि तीनों के साथ प्रत्येक में संबन्ध कर लिया जाय तिस कारण सूत्र द्वारा यों तीन अतीचार कह दिये गये हो जाते हैं कि नहीं देखे जा चुके और नहीं शुद्ध किये जा चुके क्वचित् देश में मल, मूत्र, पुस्तक, पात्र आदि का पटक देना और किसी भी उपकरण का तिस प्रकार के अदृष्ट और अमृष्ट स्थान में ग्रहण कर लेना तथा कहीं सोने, बैठने, योग्य स्थान में बिछौना, ओढ़ना आदि का झाड़े, पोंछे बिना उपक्रम कर देना यों तीन अतीचारों का द्योतक वाक्य बना कर कह दिया गया है। तथा स्वाध्याय, संयम, आदि आवश्यक कर्मों में आदर नहीं रखना अनादर है। प्रोषधोपवास शील का अनुष्ठान करने वाले जीव के भूख प्यास से पीड़ित होने के कारण स्मृतियों की स्थिति नहीं कर पाना हो सकता है । यों उस प्रोषधोपवास शील के पांच अतीचार संपूर्ण कह दिये गये हैं । यहाँ कोई पूंछता है कि उस प्रोषधोपवास के ये पांच अतीचार भला किस युक्ति से सिद्ध हुये समझे जांय ? बताओ। ऐसी जिज्ञासा प्रवर्तने पर ग्रन्थकार युक्तिप्रदर्शक अग्रिम वार्तिक को कह रहे हैं।
अप्रत्यवेक्षितेत्याद्यास्तत्रोक्ताः पंचमस्यते।
शीलस्यातिक्रमाः पंच तद्विघातस्य हेतवः ॥१॥ अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितोत्सर्ग, आदिक पांच अतीचार जो उस सूत्र में कहे गये हैं वे ( पक्ष ) पांचवें प्रोषधोपवास शील के अतिक्रम हैं ( साध्य ) क्योंकि वे उस प्रोषधोपवास व्रत का एक देश विघात करने का कारण हो रहे हैं ( हेतु ) । इस अनुमान से उक्त सूत्र का प्रतिपाद्य विषय पुष्ट हो जाता है।
यत इति शेषः।
कारिका में “यतः” पद शेष रह गया है। अर्थात् उक्त कारिका में हेतुदल प्रथमान्त पड़ा हुआ है अतः अनुमान प्रयोग बनाने के लिये “यतः" यानी जिस कारण से कि यह पद शेष रह गया समझ लिया जाय । भावार्थ “गुरवो राजमाषा न भक्षणीयाः” इस वाक्य का "राजमाषा न भक्षणीयाः गुरुत्वात" राजमाष नहीं खाने चाहिये क्योंकि वे पचने में भारी होते हैं। यों प्रथमान्तपद को भी हेत बना लिया जाता है। इसी प्रकार यहां भी "तद्विघातस्य हेतवः” इस प्रथमा विभक्ति वाले पद को चाहे "तद्विघातस्य हेतुत्वात्” यों हेतु में पंचमी विभक्तिवाला बना लिया जा सकता है अथवा इस हेतुदल को प्रथमान्त ही रहने दो इस के साथ यतः पद को जोड़ दो जोकि वार्त्तिक में नहीं कहा जा सका था अर्थ यों हुआ कि “यतः तद्विघातस्य हेतवस्ते सन्ति, अतः अप्रत्यवेक्षितादयः पंचमस्य शीलस्य अतिक्रमा भवन्ति" जिस कारण कि उस पांचवें शील के विघात के कारण वे हैं इस कारण अप्रत्यवेक्षित आदिक