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________________ सौ इक्कीम ६२६ श्लोक-वार्तिक क्षतियां पहुंचाने का प्रयत्न कर रहा है । विश्वास और वात्सल्यदृष्टियां न्यून होती जा रही हैं । ठोस प्रभावना अंग का पालना तो विरल पुरुषों में ही पाया जाता है । यश की प्राप्ति और कुछ धर्मलाभ का लक्ष्य रख कर यद्यपि कतिपय सभायें, प्रतिष्ठाएँ, तीर्थयात्रायें, जिनपूजा, तपश्चरण, आदि कार्य होते हैं फिर भी परम पवित्र, जिनशासन के माहात्म्य का प्रकाश करना अभी बहुत दूर है। यदि दशवर्ष तक भी ठोस प्रभावनायें हो जाये तो सादेबारहलाख जैनों की संख्या बढ़ कर दोकरोड़ हो सकती है और ये साढ़े बारह लाख भी पक्के जैन बन जावें । तात्पर्य यह है कि अष्टांगसम्यग्दर्शन की प्राप्ति अतीव दुर्लभ है, उन्तीस अंक प्रमाण पर्याप्त मनुष्यों में मात्र सात सौ करोड असंयत सम्यग्दृष्टि, तेरह करोड़ देश संयमी और तीन कम नौ कोटि संयर , निन्यानबेलाख, निन्यानबे हजार, नौ सौ सतानबे मनुष्य ही सम्यग्दृष्टि हैं यानी बीस अंक प्रमाण सौसंख मनुष्यों में एक मनुष्य के सम्यग्दृष्टि होने का स्थूल परिगणन आता है। हां असंभव नहीं है क्षयोपशमसम्यक्त्व और उपशमसम्यक्त्व कभी कभी आधुनिक धर्मात्मा जैनों के हो जाते हैं । उस समय थोड़ी देर के लिये निःशंकितपन आदि गुण भी चमक जाते हैं। हाँ पुनः मिथ्यात्व का उदय आ जाने पर शंका आदि दोष स्थान पा जाते हैं। क्षयोपशम सम्यक्त्व में उक्त पाँच अतीचार मन्द या अव्यक्त हो कर संभव जाते हैं । रत्नस्थान दुर्लभ होंय इसमें आश्चर्य नहीं करना चाहिये किसी भी जीव के जब कभी निःशंकितत्व, वात्सल्य आदि पाये जाँय तभी अच्छा है जीवों को पापप्रधान पुण्यरहित बहुभाग परणतियों का परित्याग कर रत्नत्रय पाने में उद्योगी होना चाहिये यह जिनशासन का उपदेशत्रिलोक, त्रिकाल, में अबाधित है । कुतः पुनरमी दर्शनस्यातिचारा इत्याह सम्यग्दर्शन के वे शंका आदि पांच अतीचार फिर किस कारण से हो जाते हैं अथवा किस युक्ति से सिद्ध हो जाते हैं ? बताओ। ऐसी जिज्ञासा प्रवर्तने पर ग्रन्थकार इस समाधान कारक अगले वार्तिक को कहते हैं । उसको सुनो। सम्यग्दृष्टरतीचाराः पञ्च शंकादयः स्मृताः। तेषु सत्सु हि तत्त्वार्थश्रद्धानं न विशुद्धयति ॥१॥ क्षयोपशम सम्यग्दृष्टि जीव के शंका आदिक पांच अतीचार सर्वज्ञआम्नाय पूर्वक आचार्य परंपरा द्वारा स्मरण किये जा चुके माने गये हैं। कारण कि आत्मा में उन शंका आदि पांच अतीचारों के होते सन्ते तत्त्वार्थों का श्रद्धान करना रूप सम्यग्दर्शन गुण की विशुद्धि नहीं हो पाती है । अर्थात् देशघाती सम्यक्त्व प्रकृति का उदय हो जाने से आत्मा में चल, मल, अगाढ़ दोषों की उत्पत्ति होने के कारण तत्त्वार्थ श्रद्धान उतना विशुद्ध नहीं हो पाता है। शंकादयः सदर्शनस्यातीचारा एव मालिन्यहेतुत्वात् ये तु न तस्यातीचारा न ते तन्मालिन्यहेतवो यथा तद्विशुद्धिहेतवस्तत्त्वार्थश्रवणाद्यर्थास्तद्विनाशहेतवो वा दर्शनमोहोदयादयस्तन्मालिन्यहेतवश्चैव ते तस्मात्तदतीचारा इति युक्तिवचनं प्रत्येयम् ॥ यहाँ अनुमान का प्रयोग यों समझिये कि शंका, आदिक पांच ( पक्ष ) सम्यग्दर्शन के अतीचार हैं। साध्यदल) मलिनता के कारण होने से ( हेतु ) जो परिणाम तो उस सम्यग्दर्शन के अतीचार नहीं हैं वे उस दर्शन की मलिनता के कारण भी नहीं हैं जैसे कि उस दर्शन की विशुद्धि के हेतु हो रहे तत्त्वार्थ
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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