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सप्तमोऽध्याय
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सुखों को सुन कर अनेक भद्र पुरुषों के मुख में पानी आ जाता है । आतुर विद्यार्थी कदाचित् अच्छे व्याख्याता के व्याख्यान को सुन कर व्याख्याता बनने के लिये और अच्छे लेखक के लेखों को बांचकर प्रसिद्ध लेखक बनने के लिये एवं चित्रकार, अभिनेता, व्यापारी, शासक, आदि बनने के लिये जैसे लालायित हो जाता है उसी प्रकार कतिपय दानी पूजक पुरुषों का भी चित्त अन्य विभूतियों को देखकर अधीनता से बाहर हो जाता है । तीसरे विचिकित्सादोष पर भी यह कहना है कि कितने बहिरंग धर्मात्माओं में घृणा के भाव पाये जाते हैं । कितने पुरुष दुखी जीवों पर करुणा करते हैं ? या बीमार धार्मिक पुरुषों के मलमूत्र धाकर उनको परिचया में लग जात है? बताओ। घृणाओं के भय के मारे कितने जीव अन्य मनुष्यों की चिकित्सा या समाधिमरण कराने के लिये उद्य क्त रहते हैं ? हजारों लाखों में से कोई एक आध ही होगा । जैनेतर पुरुषों की प्रशंसा और स्तुति करना अनेकभद्र पुरुषों में भी पाया जाता है हां कोई उदासीन श्रावक या मुनि इस अतीचार से बच गया होय, बहुत से जीवों में यह दोष अधिकतया पाया जाता है । जैन पण्डित, ब्रह्मचारी, मुनियों की सन्मुख प्रशंसा करने वाले जैन सदस्य ही पीछे उन्हीं की निन्दा करते हुये देखे जाते हैं और वे ही मिथ्यादृष्टियों की उच्छ्वास लिये बिना प्रशंसा के गीत गाते रहते हैं। जैनों द्वारा व्यवहार में अनेक अजैन जन प्रतिष्ठा प्राप्त हो रहे हैं जैनों को उन अजैनों की टहल करनी पड़ती है। भले सम्यग्दृष्टि कहे जाने वालों के घर में भी एक मिथ्यादृष्टि पुरुष उच्चकोटि की प्रशंसा स्तुतियों को पा रहा है। अजैन राजवर्ग या प्रभुओं की प्रशंसा करते हुये लोक अघाते नहीं जब कि साधर्मी भाई से जयजिनेन्द्र या सहानुभूति सूचक दो एक शब्द कहने में ही ऊपर डलियों
चढ़ बैठता है। यही दुर्दशा अमूढदृष्टि गुण की है लोकमूढता, देवमूढता, गुरुमूढताओं के फन्दे में अनेक जैन स्त्री पुरुष फंस जाते हैं प्रकट अप्रकट रूप से वे उन कार्यों में आसक्ति कर बैठते हैं। रामलीला, रासक्रीड़ा, नाटक, सीनेमा, कहानियाँ, गंगास्नान, कुतपस्विदर्शन, देवताराधन, मंत्र तन्त्र क्रियायें, आदि उपायों द्वारा कितने ही श्रोता मूढदृष्टि क्रियाओं में सम्मति दे देते हैं ।स्थितीकरण करना भी वड़ा कठिन हो रहा है । अजैनों को या राजवर्ग को या यशः संबन्धी कार्यों में धन लुटाने के लिये अनेक धनिक थैलियों के मुँह खोले हये हैं किन्तु निर्धन धार्मिकों या दरिद विधवाओं अथवा दीन छात्रों के उदर पोषणार्थ स्वल्पव्यय करने की उनके आय व्यय के चिठे ( बजट ) में सौकर्य (गुञ्जाइश ) नहीं है । विद्वान् जन भी अपने स्वार्थ या यश की सिद्धि के स्थान पर तो व्याख्यानों को झाड़ते फिरते हैं किन्तु आवश्यक स्थलों पर दर्शनच्युत या चारित्रपतित जीवों को जिनमार्ग पर लाने के लिये उन को अवसर नहीं मिलता है । व्रतीपुरुष भी जैनत्वको बढ़ाने और स्थितीकरण करने में उतने उद्योगी नहीं है जितने कि होने चाहिये । उपगूहन अंग की भी यही विकट स्थिति है साम्यवाद के युग में दोषों का छिपाना दोष समझा जाता है, खोटी टेवों को धार रहे अनेक ठलुआ पुरुष जब दूसरों के असद्भुत दोषों को प्रसिद्धि में ला रहे हैं तो सद्भुत दोषों को प्रकट करने में उनको क्यों लज्जा आने लगी। आजकल व्यर्थ के संकल्प विकल्पों और झूठी निन्दा, प्रशंसा का व्यवहार बड़े वेग से बढ़ रहा है। साधर्मियों के अल्पीयान् दोषों का परोक्ष में या एकान्त में त्रियोग से छिपा लेना बड़ा भारी पुरुषार्थ पूर्वक किया गया गुरुवर कार्य हो गया है। निन्दा किये बिना चुपके बैठा नहीं जाता, परितोष देने पर भी जनता बुराई करने से नहीं चूकती है भले ही उलटा हम से ही कुछ ले लो किन्तु दूसरों के सद्भूत, असद्भूत, दोषों की निन्दा किये बिना हमारी कण्डूया मिट नहीं सकती है। तथा वात्सल्य परिणाम भी हीयमान हो रहा है । अपने साधर्मो भाइयों के साथ निष्कपट प्रतिपत्ति करने का व्यवहार कचित् ही पाया जाता है। भले से भला मनुष्य भी यदि किसी व्गक्ति से बात चीत करता है तो उस व्यक्ति को प्रथम यही भान होता है कि यह कोई स्वार्थ सिद्धि के लिये कपट व्यवहार कर मुझ को आर्थिक, मानसिक