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श्लोक-वार्तिक कि संचेतना किये गये विना कोई कर्म बंधता नहीं है ऐसी स्वयं प्रतिज्ञा कर वध करने वाले चित्त के विना भी संन्यास में आत्मवध दोष को उठा रहा सौगत अपने अभीष्ट सिद्धान्त की बाधा कर रहा है। भावार्थ-क्षणिक वादी यदि सभी भावों को नित्य कह बैठे तो उस के ऊपर स्व समय विरोध दोष लग बैठता है तथा बौद्ध मानते हैं कि जब सत्त्व तथा सत्त्वसंज्ञा और वधक एवं मारने का चित्त यों इन चार प्रकार की चेतना को पाकर हिंसक जीव के हिंसा लगती है अन्यथा नहीं, किन्तु सल्लेखना करने वाले व्रती के अपनी हिंसा करने का चित्त नहीं है ऐसी दशा में आत्मवध का दोष उठाना अपने सिद्धान्त से च्युत होना है। दूसरी बात यह है कि कोई बड़े बल से चिल्लाकर यों पुकारे कि मैं सर्वदा मौन रहने के व्रत को धारे हुये हूं जैसे इस कथन में अपने वचनों से विरोध आता है । मौन व्रती कभी पुकार नहीं सकता है उसी प्रकार नैरात्म्य वादी बौद्ध आत्मतत्त्व को ही नहीं मानते हैं तो संन्यासी के ऊपर आत्मा के हिंसकपन का दोष नहीं उठा सकते हैं अन्यथा स्ववचन विरोध हो जावेगा । यदि यहां बौद्ध यों कहें कि मरण में भले प्रकार चित्तविचार हुये बिना वह संन्यासी किस प्रकार सल्लेखना करने में प्राप्त हो जायगा ? या सल्लेखना में प्रयत्न करने लग जायगा ? बताओ। ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना, कारण कि बुढ़ापा, असाध्यरोग, नेत्र आदि इन्द्रियों की हानि, चर्या क्रिया की हानि, आदि करके आवश्यक रूप में शरीर के परिक्षय का निःप्रतीकार प्रकरण प्राप्त हो जाने पर उस व्रती का अपने गुणों की रक्षा करने में प्रयत्न है मरण में संचेतना नहीं है तिस कारण सल्लेखना में आत्मवध दोष नहीं लगता है । सल्लेखना कोई आत्महिंसा नहीं है किन्तु पुरुषार्थ पूर्वक उपान्त किये गये व्रतशीलों की रक्षा करना है । प्रयत्न कर रहे संन्यासी के विशुद्धि का अंग होने के कारण सल्लेखना एक बलवत्तर पुरुषार्थ है जैसे कि तपश्चरण, केशलुंचन, कायक्लेश आदि हैं अतः प्रासुक भोजन, पान, उपवास आदि विधि करके मरणपर्यन्त शुभभावनाओं का विचार कर रहा संन्यासी शास्त्रोक्त विधि करके सल्लेखना का प्रीतिपूर्वक सेवन करता है। ... एकयोगकरणं न्याय्यं इति चेन्न कचित्कदाचित्कस्यचित्तां प्रत्याभिमुख्यप्रतिपादनार्थत्वात् वेश्मापरित्यागिनस्तदुपदेशात् । दिग्विरत्यादिसूत्रेण सहास्य सूत्रस्यैकयोगीकरणेऽपि यथा दिग्विरत्यादयो वेश्मापरित्यागिनः कार्यास्तथा सल्लेखनापि कार्या स्यात् । न चासौ तथा क्रियते क्वचिदेव समाध्यनुकूले क्षेत्रे कदाचिदेव संन्यासयोग्ये काले कस्यचिदेवासाध्यव्याध्यादेः सन्न्यासकारणसन्निपातादप्रमत्तस्य समाध्यर्थिनः सल्लेखनां प्रत्याभिमुख्यज्ञापनाच सागारानागारयोरविशेषविधिप्रतिपादनार्थत्वाच्च सन्लेखनायां पूर्वत्वादस्य तंत्रस्य पृथग्वचनं न्याय्यं ॥ एतदेवाह
यहाँ कोई आक्षेप करता है कि पूर्व सूत्र के साथ इस सूत्र का एक योग कर देना न्यायोचित है "दिग्देशानर्थदण्डविरतिसामायिकप्रोषधोपवासोपभोगपरिमाणातिथिसंविभागवतमारणान्तिकी सल्लेखनासंपन्नश्च" यों मिलाकर एक सूत्र कर देने में लाघव है। ग्रन्थकार कहते हैं कि यह आक्षेप ठीक नह कारण कि किसी एक पवित्र क्षेत्र में किसी नियत समय में किसी नियत व्यक्ति के ही उस सल्लेखना के प्रति अभिमुखपना है । इस का प्रतिपादन करने के लिये पृथक् योग किया गया है । एक बात यह भी है कि पूर्व सूत्र के साथ इस सूत्र को मिला देने से घर का नहीं परित्याग करने वाले श्रावक को ही उस सल्लेखना करने का उपदेश समझा जाता। मुनि के सल्लेखना का कर्तव्य नहीं समझा जाता, किन्तु मुनिमहाराज को भी सल्लेखना करना सिद्धान्त में अभीष्ट किया गया है अतः दो सूत्रों को एक में जोड़ देना ठीक नहीं है “दिग्देशानर्थदण्डविरति" इत्यादि सूत्र के साथ इस "मारणान्तिकों" आदि सूत्र का