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________________ सप्तमोऽध्याय ६१९ कोकर अनेकों का एक योग कर देने पर भी जिस प्रकार दिग्विरति आदिक व्रत उस गृह के अपरित्यागी गृहस्थ ने योग्य माने जाते है उसी प्रकार सल्लेखना भी गृहस्थ को ही करने योग्य होती। साथ ही जैसे सर्वत्र, सर्वदा सभी गृहस्थ दिग्विरति आदि व्रतों को पालते हैं उसी प्रकार सल्लेखना भी सभी स्थानों पर सभी कालों में सभी गृहस्थों के पालने योग्य हो जाती, किन्तु अहिंसा, दिग्विरति, आदि के समान वह . सल्लेखना तो तिस प्रकार सर्वत्र सर्वदा सब करके नहीं की जाती है किन्तु समाधि के अनुकूल हो रहे तीर्थस्थान, धर्मशाला, वसतिका आदि किसी एक पावन क्षेत्र में ही और संन्यास के योग्य हो रहे किसी विशेष काल में ही तथा असाध्य व्याधि तीक्ष्ण अस्त्राघात आदि परिस्थितियों से उपद्रुत हो रहे किसी सप्तशीलधारी जीव के सल्लेखना होती है अतः संन्यासमरण के कारणों का सन्निपात हो जाने से सल्लेखना के लिये सदा अप्रमादी हो रहे उस समाधि के अभिलाषुक प्राणी के सल्लेखना के प्रति अभिमुखपन को ज्ञापन करना भी पृथक् योग की सार्थकता है। एक बात यह भी है कि अणुव्रती सागार और महाव्रती अनगार दोनों को विशेषता रहित यह सल्लेखना करने की विधि है । इस को समझाने के लिये सूत्रकार महाराज ने न्यारा सूत्र किया है। दिग्विरति आदि सूत्र में मात्र श्रावक की विधि है और इस सूत्र में सामान्य रूप से श्रावक और मुनि दोनों के लिये सल्लेखना का विधान किया गया है । यह अभिप्राय न्यारा सूत्र करने से ही झलक सकेगा। गृहस्थ भी तभी सल्लेखना करता है जब कि दिग्विरति आदि सातों शील उस सल्लेखना में पहिले पल जाते हैं अतः कारण कार्यभाव अनुसार भी इस सूत्र नामक तंत्र का पृथक् वचन करना न्याय मार्ग से अनपेत है । इस ही बात को आचार्य महाराज वार्तिक द्वारा कहते हैं। . पृथक्सूत्रस्य सामर्थ्याच्च सागारानगारयोः। सल्लेखनस्य सेवेति प्रतिपत्तव्यमञ्जसा ॥१॥ सागार और अनगार दोनों व्रतियों के सल्लेखना का सेवन है। इस सिद्धान्त को इन दो सूत्रों के पृथक् करने की सामर्थ्य से बिना कहे ही निर्दोष रूप से समझ लेना चाहिये। तदेवमयं साकल्येनैकदेशेन च निवृत्तिपरिणामो हिंसादिभ्योऽनेकप्रकारः क्रमाक्रमस्वभावविशेषात्मकस्यात्मनोऽनेकान्तवादिनां सिद्धो न पुनर्नित्यायेकान्तवादिन इति ॥ तेषामेव बहुविधवतमुपपन्नं नान्यस्येत्युपसंहृत्प दर्शयन्नाह तिस कारण यह सकल रूप करके हिंसादिक से निवृत्ति होने का अनेक प्रकार मुनियों का परिणाम और हिंसादिकों से एक देश करके निवृत्ति हो जाना स्वरूप श्रावकों का अनेक प्रकार का परिणाम तो क्रमभावी और सहभावी स्वभाव विशेषों के साथ तदात्मक हो रहे आत्मा के ही हो सकता है अतः अनेकान्तसिद्धान्त का पक्ष ले रहे अनेकान्त वादी जैनों के यहाँ ही परिणामी आत्माका अनेक प्रकार परिणाम हो जाना सिद्ध है किन्तु फिर आत्मादि पदार्थों को सर्वथा नित्य मानने वाले या आत्मा को सर्वथा अनित्य (क्षणिक ) मानने वाले आदि एकान्तवादियों के यहाँ हिंसादिक से निवृत्ति हो जाना आदि परिणतियाँ नहीं सिद्ध होने पाती हैं। और उन अनेकान्तवादियों के यहाँ ही बहुत प्रकार के अहिंसा, सामायिक, दान, आदि व्रत भी बन सकते हैं। अन्य एकान्तवादी के यहाँ व्रत करना ही नहीं बन सकता है । अर्थात् सहक्रमभाव से अनेक विवौं रूप करके परिणमन कर रहे आत्मा के पहिले हिंसापरिणति -थी पुनः उसी परिणामी आत्मा के अंतरंग बहिरंग कारण वश अहिंसाणुव्रत या अहिंसामहाव्रत परिणाम
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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