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________________ सप्तमोऽध्याय ६१७ समाधिमरणार्थी जीव के स्वाभिप्रायपूर्वक आयुः कर्म के निषेकों की निवृत्ति हुई है अतः अपने को मार डालना रूप आत्मवध दोष प्राप्त होता है । इस पर आचार्य महाराज कहते हैं कि विष का उपयोग शस्त्राघात, श्वास निरोध आदि करके अपनी हत्या कर रहे ही द्वेषी, प्रमादी जीव के उस आत्मवध दोष का सद्भाव है किन्तु उस सल्लेखना में तो स्वयं उत्साह पूर्वक धार लिये गये गुणों की क्षति का अभाव है अतः सल्लेखना में प्रीति की उत्पत्ति होने पर भी यों ही मर जाना इष्ट नहीं है । अर्थात् अप्रमादी, रागद्वेषरहित जीव के अपने रत्नत्रय या व्रतों की रक्षा का लक्ष्य है । मर जाना उसको अभीष्ट नहीं है । उपसर्ग, दुर्भिक्ष, असाध्यरोग, शस्त्राघात आदि अवस्थाओं में गुणों की विराधना नहीं करता हुआ शरीर की अपेक्षा नहीं रखता है, मरण की भी अभिलाषा नहीं रखता है । जैसे कि अपने अमूल्य रत्नों का विघात नहीं होते सन्ते भले ही भण्डारे का विनाश हो जाय तो भी उनके प्रभु हो रहे सेठ को प्रीति होते हुये भी भण्डारे का विनाश इष्ट नहीं है । भावार्थ-सोना, चाँदी, रत्न, मोती, आदि अमूल्य या बहुमूल्य पदार्थों से भरपूर हो रहे सेठ या महाराजा को यद्यपि रत्नों और रत्नों के स्थान कोठार का विनाश होना इष्ट नहीं है किन्तु कारण वश उस कोठार के विनाश का कारण उपस्थित हो जाय तो वह धनपति उन विनाशक कारणों का यथाशक्ति परिहार करता है यदि भण्डारे की रक्षा करना असाध्य हो जाय तो अनर्घ्य बहुमूल्य बस्तुओं का नाश नहीं होय वैसा प्रयत्न करता है । इसी प्रकार गृहस्थ भी व्रत, शील, पुण्य संचय, ध्यान, कायोत्सर्ग में प्रवृत्ति कर रहा सन्ता व्रत आदिके अवलम्ब हो रहे शरीर का पात हो जाना कथमपि नहीं चाहता है। हाँ उस शरीर के अनेक कारण वश नाश की प्रस्तुति हो जाने पर अपने गुणों विराधना नहीं करता हुआ उन नाशक उपायों का परिहार करता है । यदि शरीर का पात अनिवार्य हो जाय तो अपने गुणों का नाश नहीं होने देता है। अतः सल्लेखना करने वाले जीवके आत्मबध दोष नहीं है। एक बात यह भी है कि प्रमाद रहित जीव के जीवित रहने और मर जाने इन दोनों में कोई प्रमादपूर्वक अभिप्राय नहीं है । अभिप्राय रखते हुये जब सुख दुःखों में रागद्वेष हो जाता है तब प्रमादी जीव के कर्म बन्ध होता है किन्तु श्री जिनेन्द्र भगवान् करके उपदेशी गयी सल्लेखना को कर रहे जीव के जीवित या मरण का अभिप्राय नहीं है अतः आत्म वध दोष नहीं आता है । वह संन्यासमरण कर रहा जीव उस समय जीवन अथवा मरण का अभिप्राय नहीं रखता है वह तो यों विचार रहा है कि मैं मरण का प्रशंसापूर्वक स्वागत नहीं कर रहा हूँ। और मैं जीवित रहने की भी विशेष अभिलाषा नहीं रखता हूँ मैं तो केवल रत्नत्रय पूर्वक समाधिकाल की ही प्रतीक्षा कर रहा हूँ जिस प्रकार कि आजीविका करने वाला सेवक मात्र प्रभुके निदेश ( हुक्म ) की प्रतीक्षा किया करता है इस प्रकार संन्यास धारने वाले की भावनाओं में विशुद्धि हो रही है तिस कारण सल्लेखना करने में आत्मवध दोष नहीं है यह कथन करना युक्तिपूर्ण है | तथा वदतः स्वसमयविरोधात् । सोऽयं ना संचेतितं कर्म बध्यत इति स्वयं प्रतिज्ञाय वधकचित्तमन्तरेणापि संन्यासे स्ववधदोषमुद्भावयन् स्वसमयं बाधते स्ववचनविरोधाच्च सदा मौन - व्रतिकोऽहमित्यभिधानवत् । मरणसंचेतनाभावे कथं सल्लेखनायां प्रपन्न इति चेन्न, जरारोगेन्द्रियहानिभिरावश्यक परिक्षय संप्राप्ते तस्य स्वगुणे रक्षणे प्रयत्नस्ततो न सल्लेखनात्मवधः प्रयत्नस्य विशुद्धयङ्गत्वात् तपश्चरणादिवत् । ; एक बात यह भी है कि उस समय सल्लेखना करते तिस प्रकार आत्मवध दोष को कह रहे . वादी के यहाँ अपने स्वीकृत सिद्धान्त से विरोध पड़ता है। प्रसिद्ध हो रहा यह बौद्ध प्रतिज्ञा करता है
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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