SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 637
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्लोक-वार्तिक जोषिता सेविता प्रीत्या स व्रती मारणांतिकीं ॥१॥ मृत्युकारणसंपातकालमास्थित्य सद्वतं । रक्षितु शक्यभावेन नान्यथेत्यप्रमत्तगं ॥२॥ सल्लेखना शब्द में सत् शब्द का अर्थ समीचीन है और लेखना का अर्थ तक्षा यानी तनूकरण (पतला करना) है। यहाँ प्रकरण में समीचीन रूप से काय और क्रोधादिकषाचों को क्षीण करना ( "त्वा तनूकरणे" धातु से त्वक्षा शब्द बना लिया जाय ) सल्लेखना माना गया है। वह पूर्वोक्त व्रतों का धारी अणुव्रती या महाव्रती जीव उस मरण रूप अन्त नाम के प्रयोजन को धारने वाली सल्लेखना को जोषिता यानी प्रीति करके सेवन करने वाला होवे। स्वल्पकाल में ही मृत्युके कारणों का संपात होने वाला है ऐसे अवसर का समीचीन निमित्तों द्वारा विश्वास पूर्वक निश्चय कर सविचार प्रतिज्ञा पूर्वक गृहीत किये जा चुके अहिंसा, आदि श्रेष्ठ व्रतों की रक्षा करने के लिये पुरुषार्थ पूर्वक समाधिमरण कर सकने के अभिप्रायों से सल्लेखना की जाती है अन्यथा नहीं । अर्थात् समाधिमरण में जिसको प्रीति नहीं है या व्रतों की रक्षा का लक्ष्य नहीं है उसका समाधिमरण नहीं हो सकता है इस प्रकार सल्लेखना को प्रतिपन्न हो रहे अप्रमत्त जीव के यह सल्लेखना नाम का विरमण प्राप्त हो रहा है, भावार्थसल्लेखना करने वाले के आत्मवध दोष नहीं आता है क्यों कि प्रमाद्योग से अपने प्राणों का वियोग करने वाला आत्महिंसक है किन्तु जिस व्रती के रत्नत्रय की रक्षा का उद्देश है उसके रागादि का अभाव हो जाने से प्रमादयोग नहीं होने के कारण स्वात्मघातीपन नहीं है। सेवितेति ग्रहणं स्पष्टार्थमिति चेन्न, अर्थविशेषोपपत्तेः । प्रतिसेवनार्थो हि विशिष्टो जोषितेति वचनात्प्रतिपद्यते । कोई यहाँ आक्षेप करता है कि सूत्रकार को सरलपदों का प्रयोग करना चाहिये । क्लिष्टशब्दों द्वारा प्रतिपत्ति करने में बड़ी कठिनता पड़ती है । जोषिता के स्थान पर विशेषतया स्पष्ट कथन करने केलिए "सेविता" इस पद का ग्रहण करना अच्छा है । व्रती पुरुष मरणान्त प्रयोजन वाली सल्लेखना का सेवन करे यह अर्थ सेविता कह देने से स्पष्ट झलक जाता है, ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो न कहना क्यों कि सेविता को छोड़ कर जोषिता कहने में सूत्रकार को विशेष अर्थ की सिद्धि हो रही है चूंकि जोषिता ऐसा कथन करने से प्रीति पूर्वक कथन करना यह विशिष्ट अर्थ समझ लिया जाता है "जुषी प्रीतिसेवनयोः" प्रीति और सेवा करना दोनों ही जुषी धातु के अर्थ हैं । समाधिमरण में प्रीति के नहीं होने पर बलात्कार से सल्लेखना नहीं कराई जाती है रुचि होने पर व्रती स्वयमेव सल्लेखना को करता है अतः “जोषिता" पद ही यहाँ सुन्दर जचा। विषोपयोगादिभिरात्मानं नत एव तद्भावात् तत्र स्वयमारोपितगुणक्षतेरभावात्प्रीत्युत्पत्तावषि मरणस्यानिष्टत्वात्, स्वरत्नाविघाते भाण्डागारविनाशेऽपि तदधिपतेः प्रीतिविनाशानिष्टवत् । उभयानभिसंधानाचाप्रमत्तस्य नात्मवधः । नासौ तदा जीवनं मरणं वाभिसंधत्ते "नाभिनन्दामि मरणं नाभिकांक्षामि जीवितं । कालमेव प्रतीक्षेऽहं निदेशं भृतको यथा ॥" इति संन्यासिनो भावनाविशुद्धिः। ततो न सल्लेखनायामात्मवध इति वचनं युक्तं ॥ यदि यहाँ कोई कटाक्ष करे कि आहार, पान, औषधियों के निरोध से काय को क्षीण कर रहे
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy