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सप्तमोऽध्याय
अलग धर दिया जाता है, साँप काँचली को उतार कर पृथक हो जाता है । सुना जाता है कि जयपुर में
चन्द जी दीवान ने जयपर के जैन मन्दिरों की रक्षा और जयपर को तोपों से उडाय जाने की आज्ञानुसार होने वाली लाखों जीवों की हिंसा का निवारण करनेके लिये स्वयं अपना मरण विचार लिया था तदनुसार प्राणदण्डप्राप्ति के प्रथम ही समाधिको भावते भावते अपने शरीर को त्यक्त कर दिया था। धन्य हैं ऐसे सज्जन जो कि जीवदया या प्रभावना का लक्ष्य रख अपने ऊपर आये हुये तीव्र उपसर्ग की अवस्था में समाधिमरण कर जाते हैं। इसीलिये तो समाधिमरण होने की प्रतिदिन भावना भाई जाती है कि हे भगवन् ! हमारा समाधिमरण होय । “दुःखक्खउकम्मक्खउसमाहिमरणं च बोहिलाभो य । मम होउ जगद्बान्धव, तव जिणवर चरणशरणेण" आज कल के वैज्ञानिक युगमें रेलगाड़ी, मोटरकार, बिजलियाँ, जहाज, खानों के धड़ाके, पुल बनाना आदि में सैकड़ों मनुष्य प्रति दिन मरते हैं । मकान गिर जाना, प्लेग, अग्निदाह, विषूचिका आदि रोग, नदी प्रवाह, साँप, बिच्छू, व्याघ्र आदि के काटने से यों प्रतिदिन सैकड़ों मनुष्य मर जाते हैं। ऐसे मरणों में आर्त रौद्र ध्यान ही सम्भवते हैं। लाखों, करोड़ों में से संभवतः एक आध को ही धर्मध्यान होता होगा। अतः “दुःखक्खउ कम्मक्खउ समाहिमरण जिन गुण सम्पत्ति होउ मज्झं" ऐसी प्रतिदिन भावना भाई जाती है । चिरकाल से धर्म की आराधना की होय और मरण अवसर पर परिणाम बिगड़ जाँय तो यह बड़ा भारी टोटा है । योद्धा को युद्ध में स्खलित नहीं होना चाहिये। देखो जिसने पूर्व काल में आराधनाओं का अभ्यास किया है वह मरणकाल में अवश्य धर्मात्मा बना रहेगा। हां अत्यन्त तीव्र पाप कर्म का उदय आ जाने पर उसका भी समाधिमरण बिगड़ जाता है। किन्तु धर्मात्मा के प्रथम ही कर्म बन्धन ढीले पड़ जाते हैं। समाधिमरण के समय हुये विशुद्धपरिणाम या संक्लेश परिणाम भविष्य में अनेक वर्षों तक वैसी ही शभ, अशभ, वासनाओं को वनाते रहते हैं अतः मिथ्यात्व का त्याग कर अन्न, पान के त्यागक्रम से संयम पूर्वक शरीर का त्याग करने के लिये उद्यक्त बने रहना चाहिये, न जाने कब मरण का प्रकरण प्राप्त हो जाय, आजकल बहुभाग होने वाली अकाल मृत्युओं का. किसे पता है ? अच्छा हो समाधिमरणार्थी किसी तीर्थस्थान या अतिशयक्षेत्र पर जाकर अपना समाधिमरण करे जहां कि समाधिमरण कराने वाले निर्यापकों का सत्संग होय । प्रथम ही देना (कर्ज) लेना, कटम्बीजन, आश्रित संस्थाओं आदि की व्यवस्था कर चकने पर निश्शल्य हो जाय, अनन्तर समाधिमरण के साधक उपायों में लगे । समाधिमरण कराने वाले पुरुष भी अतीव सज्जन और देश, काल, व्यक्ति, परिणाम, शरीर, आदि की परीक्षा में निपुण होंय । समाधिमरणार्थी को आहार या पुद्गलों में अनुराग न हो जाय इस लिये मिष्ट उपदेशों से दृष्टान्तपूर्वक उसको समझा दिया जाय कि हे भाई ! ऐसा कोई भी पुद्गल नहीं है जो कि तुमने भोगकर न छोड़ दिया होय यदि किसी गुद्गल में आसक्त हो कर मर जाओगे तो निदानवश क्षुद्रकीट हो कर परजन्म में उसको खाओगे। हाँ यदि त्यागी बने रहोगे तो स्वर्ग के सुख भोग कर निर्वाण को प्राप्त करोगे। इत्यादिक रूप से समाधिमरण की प्रथम अवस्थाओं, मध्यम अवस्थाओं और अन्त्य अवस्थाओं का जैनग्रन्थों में वर्णन पाया जाता है। श्रीरत्नकरण्डश्रावकाचार, सागार धर्मामृत आदि में अच्छा स्पष्टीकरण है। समाधितंत्र में भी बहुत अच्छा सद्विचार है-अभिप्राय यह है कि शास्त्रोक्तरीति से काय और कषायों का समीचीनतया लेखन करना सल्लेखना है । उस मरणान्तस्वरूप प्रयोजन को रखने वाली सल्लेखना को "जोषिता" यानी प्रीति करके सेवन करने वाला व्रती है। यह इस सूत्र का अर्थ है । अब कोई पूछता है कि क्या करने के लिये सूत्रकार ने उक्त सूत्र कहा है ? ऐसी जिज्ञासा प्रवर्तनेपर ग्रन्थकार श्री विद्यानन्द स्वामी अग्रिम वार्तिकों द्वारा इसका समाधान कहते हैं ।
सम्यक्कायकषायाणां त्वक्षा सल्लेखनात्र तां ।