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श्लोक - वार्तिक
यहां तद्भवमरण का ग्रहण है अन्यथा यानी नित्यमरण की विवक्षा करने पर अन्त शब्द का ग्रहण करना व्यर्थ ही पड़ता क्योंकि नित्यमरण कोई अन्तस्वरूप नहीं है । आदि में, मध्य में सदा ही होते रहते हैं । यहाँ स्थूल ऋजुसूत्रनय अथवा व्यवहार नय अनुसार असंख्यात समयों की एक स्थूल पर्याय का पूरी भुज्यमान आयुः के अन्त में क्षय हो जाना स्वरूप तद्भवमरण लिया गया है। प्रत्येक सत् में उत्पाद, व्यय, धौव्य, तीनों धर्म घटित हो जाने चाहिये । पूर्वभव में असंख्यात समयों की स्थितिवाली बांधी ग आयु का वर्तमान भव में उदय आ जाने के समय से प्रारम्भ कर उदय या उदीरणाकरणों करके हुये भुज्यमान आयुः के सम्पूर्ण निषेकों की पूर्णता हो जाना तद्भवमरण है। यहां आयु का अन्त हो जाने पर भवान्तर की प्राप्ति स्वरूप उत्पाद है और पूर्व भव की निवृत्ति हो जाना व्यय है, और अनेक भवों तक व्याप रहे ज्ञान, संसरण, कर्तृत्व, भोक्तृत्व आदि परिणतियों का स्थिर रहना धौव्य है । यों जैन सिद्धान्त
मरण की परिभाषा युक्ति आगम अनुसार कर दी गयी है। वह तद्भव मरण स्वरूप ही जो अन्त है वह मरणान्त है । जिस सल्लेखना का प्रयोजन मरणान्त है इस कारण सल्लेखना मारणान्तिकी कही जाती है । यों समासवृत्ति और तद्धित वृत्ति अनुसार सूत्रोक्त "मारणान्तिकी” शब्द को व्युत्पन्न कर दिया गया है ।
सम्यक्कायकषायलेखनाबाह्यस्य कायस्याभ्यंतराणां च कषायाणां यथाविधि मरण - विभक्त्याराधनोदितक्रमेण तनूकरणमिति यावत् । तां मारणान्तिकीं सन्लेखनां जोषिता प्रीत्या सेवितेत्यर्थः ।। किं कर्तुमित्याह —
समीचीन रीति से काय और कषायों की लेखना यानी पतला करना सल्लेखना है । बहिरंग हो रही काय और अभ्यन्तर में वर्त रही क्रोधादि कषायों का यथाविधि मरणविभक्ति आराधना प्रकरणों में कहे गये क्रम करके तक्षण ( पतला ) करना यह सल्लेखना का फलितार्थ है । अर्थात् जो जीव शास्त्रोक्त विधि अनुसार समीचीन रीति से काय और कषायों की भी लेखना करता है वह सात, आठ, भवों में प्राप्त है। समाधिमरण के प्रज्ञापक कतिपय ग्रन्थ हैं । गुरुपरिपाटी से चला आया श्रेष्ठ प्रक्रम विशेष हितकर है । "घादेण अघादेण व, पडिदं चागेण चत्तमिदि" कदलीघात सहित अथवा कदली घात के बिना समाधिरूप परिणामों में शरीर का छोड़ देना व्यक्त कहा जाता है । भक्तप्रतिज्ञा, इंगिनी, और प्रायोग्य विधि से व्यक्त के तीनभेद हैं । सल्लेखना में शरीर आहार, और संकल्प विकल्पों के त्याग करते शुद्धा शोधन किया जाता है । समाधिमरण के लिये दिगम्बर दीक्षा ले ली जा तो बहुत ही अच्छा है। श्रावक भी समाधिमरण कर सकता है । समाधिमरण करते समय कदलीघात मरण भी हो जाय भी आत्मघात दोष नहीं लगता है क्योंकि कषायों के आवेश से विष, वेदना, आदि करके अपने प्राणों की हिंसा करने वाल अत्मघाती है। किन्तु यहाँ अत्यन्तदुर्लभ धर्म की रक्षा के लिये अवश्यनाशी शरीर की रक्षा का लक्ष्य न भी रखा जाय इस में कोई प्रमाद दोष नहीं है । हां संयम या तप के साधने के लिये शरीर को बनाये रखना आवश्यक है किन्तु उपसर्ग, दुर्भिक्ष आदि की प्रतीकार रहित अवस्था मिल जाने पर काय को हेय समझकर धर्म ही संरक्षणीय हो जाता है । देह आदि की विकृति, उपसर्ग, निमित्तशास्त्र, ज्योतिष, शकुन, स्वप्न आदि करके शीघ्र क्षय हो जाने वाली आयु का निश्चय कर आराधनाओं में अपने विचार को मग्न करना चाहिये । उस समय इन शुभविचारों की भावना करे कि जन्म, मृत्यु, बुढ़ापा, रोग, ये सब शरीर के हैं आत्मा नित्य, अजरामर, रत्नत्रयस्वरूप उत्तमक्षमादि दशधर्म रूप है सल्लेखना करने वाला शरीर को इस प्रकार अलग छोड़ देता है जैसे कि कपड़े को उतार कर