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सप्तमोऽध्याय
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हो रहा और पांच अहिंसा आदि अणुव्रतों से भूषित हो रहा गृहस्थ शुद्धात्मा है ऐसी प्रतिपत्ति कर लेनी चाहिये । इस सूत्र में घ शब्द पड़ा हुआ है जो कि अनुक्त का समुच्चय करने के लिये है । आठ मूल गुणों का धारण और सप्त व्यसनों के त्याग का भी ग्रहण कर लिया जाता है । एवं पूर्व में कहे जा चुके पांच अणुव्रतों का समुच्चय करना इसका प्रयोजन है । भविष्य में कही जाने वाली सल्लेखना का भी आकर्षण कर लिया जाता है। तिस कारण सिद्ध हो जाता है कि गृहस्थ के अहिंसादि पांच अणुव्रत हैं और गुणव्रत, शिक्षावत, इन नामों को धार रहे सात शील हैं । इस प्रकार सम्यक्त्व पूर्वक और सल्लेखनान्त ये मध्यवर्ती बारह दीक्षा के भेद गृहस्थ के हैं। जैसे कि मुनियों के महाव्रत और उनके परिरक्षक शील पाये जाते हैं । भावार्थ- जैसे मुनियों के सम्यक्त्वपूर्वक अट्ठाईस मूल गुण और चौरासी लाख उत्तर गुण तथा अन्त में सल्लेखना यों व्रतों की व्यवस्था है । उसी प्रकार सम्यक्त्वपूर्वक बारहव्रत और अन्त में सल्लेखनामरण ये पूरा श्रावक धर्म है । माननीय पण्डित आशाधरजी ने कहा है कि " सम्यक्त्वममलममलान्यणुगुणशिक्षाव्रतानि मरणान्ते, सल्लेखना च विधिना पूर्णः सागारधर्मोऽयम् ॥”
कदा सल्लेखना कर्तव्येत्याह
च शब्द करके समुच्चय करने योग्य सल्लेखना भला कब करनी चाहिये ऐसी जिज्ञासा प्रवर्तने पर सूत्रकार महाराज इस अग्रिम सूत्र को कहते हैं ।
मारणान्तिकों सल्लेखनां जोषिता ॥ २२॥
तद्भवमरना स्वरूप अन्त है प्रयोजन जिसका ऐसी सल्लेखना की प्रीति को रखने वाला और समय आ जाने पर उसका सेवन करने वाला व्रती होता है । अर्थात् मरण के उपान्त्य में हो रही समीचीन रीत्या अन्न, ईहा, शरीरों की लेखना यानी पतला करना रूपी सल्लेखना में प्रीति करने वाला और सेवन करने वाला व्रती होना चाहिये ||
व्रतीत्यभिसंबन्धः सामान्यात् । स्वायुरिंद्रियबलसंक्षयो मरणं, अन्तग्रहणं तद्भवमरणप्रतिपत्यर्थं ततः प्रतिसमयं स्वायुरादिसंक्षयोपलक्षणनित्य मरणव्युदासः । भवांतरप्राप्त्यजहवृत्तपूर्वभवनिवृत्तिरूपस्यैव तद्भवमरणस्य प्रतिपत्तेः मरणमेवान्तो मरणान्तः, मरणान्तः प्रयोजनमस्या इति मारणान्तिकी ।
सामान्यरूप से प्रकरण में चले आ रहे “व्रती" शब्द का यहां विधेय दल की ओर सम्बन्ध कर लेना चाहिये । अजर, अमर नित्य, हो रहे आत्मद्रव्य का तो मरण होता नहीं है किन्तु अपने आत्मीय परिणामों से ग्रहण किये गये आयुः प्राण, इन्द्रियप्राण, श्वासोच्छवास, और बल प्राणों का कारण वश से संक्षय यानी वियोग हो जाना मरण है। इस सूत्र में अन्तशब्द का ग्रहण करना तो उस कालान्तरस्थायी पर्याय स्वरूप तद्भव के मरण की प्रतिपत्ति को कराने के लिये है । तिस कारण आद्य जीवन, मध्यजीवनों में भी प्रत्येक प्रत्येक समय से हो रहे स्वकीय आयुः, इन्द्रिय आदि का संक्षय करके उपलक्षित हो रहे नित्यमरण का निराकरण हो जाता है। अन्य भव की प्राप्ति हो जाना और अनेक भवों तक व्याप रहे धन्य स्वभावों को नहीं छोड़ कर वर्तना तथा ग्रहीत पूर्व भव सम्बन्धी स्वभावों की निवृत्ति हो जाना स्वरूप हो रहे ही तद्भवमरण की प्रतिपत्ति हो रही है । अर्थात् नित्यमरण और तद्भवमरण यों मरण दो प्रकार का है। सूक्ष्म ऋजुसूत्र नय अनुसार सम्पूर्ण पूर्व पर्यायों का उत्तर क्षण में विध्वंस होना जान लिया जाता है । यों बाल अवस्था से लेकर वृद्ध अवस्था पर्यंत असंख्याते नित्य मरण हो रहे हैं किन्तु