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श्लोक-वार्तिक
परित्याग करना चाहिये भले ही इन अनिष्ट पदार्थों में त्रस घात या बहुस्थावरघात नहीं है तथापि प्रकृति को अनुकूल नहीं पड़ने से आत्माके संक्लेशांगों की वृद्धिका कारण होने से अनिष्ट पदार्थों का यावज्जीव त्याग कर देना चाहिये । भोजन में भी जो दही, दूध, मका, केला, आदिक यदि शरीर प्रकृति को अनिष्ट पड़ते हैं तो वे उस व्यक्ति के लिये अभक्ष्य है। जिन वस्त्रों पर नाना पशु पक्षियों के कढ़ाव हो रहे है अथवा चमक, दमक, जिनकी खटकने योग्य है, पंचरंगे पट्टी, सीताराम, आदि शब्दों से अङ्कित आदि विकृत हो रहे चित्रवस्त्र, विभिन्न प्रकार के निन्दनीय भूषण, शृंगार, विकृत वेश, लार, उगाल, मूत्र, आदि त्यागने योग्य हैं। क्योंकि उक्त निन्दनीय परिभोग शिष्ट पुरुषों द्वारा सेवनीय नहीं हैं। गुण्डे, शृंगारी, नट, बहुरूपिया आदि अशिष्ट पुरुष ही ऐसे खटकने योग्य परिभोगों को सेवते हैं अतः वे चित्रवस्त्र आदि भले ही जीव वध पूर्वक नहीं होते हुये इष्ट भी होंय तो भी आत्म विशुद्धि में क्षति पहुंचाने वाले होने से सर्वदा ही सब ओर से त्यागने योग्य हैं । यदि यावज्जीव त्यागने की शक्ति नहीं है तो उसके सिवाय शक्ति का अतिक्रमण नहीं कर अपने विभव या परिस्थिति के अनुकूल हो कर नियत देश की मर्यादा और नियत काल की मर्यादा करके भोगना चाहिये, त्यागने की ओर लक्ष्य रखना चाहिये । स्त्रिय के वस्त्र, आभूषण, तो पुरुषों के लिये अनुपसेव्य पड़ जाते हैं और पुरुषों के वस्त्र, गायन, परिधावन, प्रकाण्ड अर्थोपार्जन आदि कार्य स्त्रियों के लिये अनुपसेव्य हो जाते हैं। इन कृतियों से आत्मा में उपहास, रागद्वेष परिणतियां, निर्बलतायें, स्वकर्तव्यक्षति, आदि संक्लेश हो जाते हैं । अतः इन का परित्याग करना आवश्यक बताया है । “स्व विभवानुरूपं” पद से यह भी ध्वनित हो जाता है कि आपक या संक्लेश को बढ़ाने वाले सट्टा, लाइट्री, वायदा आदि वाणिज्यों को त्याग करते हुये आत्मविशुद्धिको करने वाला भोगोपभोग संख्यान करना चाहिये । भगवान् श्री समन्तभद्राचार्य ने श्रावकाचार में भोगोपभोग संख्यान को पाँच प्रकार गिनाया है । "त्रसह तिपरिहरणार्थ क्षौद्रं पिशितं प्रमादपरिहृतये, मद्यं च वर्जनीयं जिनचरणौ शरणमुपयातैः ।। १ । अल्पफलबहुविघातान्मूलकमार्द्राणि शृंगवेराणि । नवनीतनिम्बकुसुमं कैतकमित्येवमवहेयम ॥ २॥ यदनिष्टं तद्ब्रतयेद्यच्चानुपसव्यमेतदपि जह्यात, अभिसन्धिकृताविरतिर्योग्याद्रिषयाव्रतं भवति ॥३॥ राजवार्त्तिक में भी ऐसा ही निरूपण है ॥
___अतिथिसंविभागश्चतुर्विधो भिक्षोपकरणौषधप्रतिश्रयभेदात् । तत्र भिक्षा निरवद्याहारः रत्नत्रयोपबृंहणमुपकरणं पुस्तकादि, तथौषधं रोगनिवृत्त्यर्थमनवद्यद्रव्यं, प्रतिश्रयो वसतिः । स्त्रीपश्वादिकृतसम्बन्धरहिता योग्या विज्ञेया। एवंविधोदितव्रतसंपन्नोऽणुव्रतो गृहस्थशुद्धात्मा प्रतिपत्तव्यः । चशब्दः सूत्रेऽनुक्तसमुच्चयार्थः प्रागुक्तसमुच्चयार्थात् । तेन गृहस्थस्य पञ्चाणुव्रतानि सप्त शीलानि गुणवतशिक्षावतभांजीति द्वादशदीक्षाभेदाः सम्यक्त्वपूर्वकाः सल्लेखनान्ताश्च महाव्रततच्छीलवत् ।
सातवां शील अतिथिसंविभाग व्रत तो भिक्षा, उपकरण, औषध और प्रतिश्रय इन भेदों से चार प्रकार का है। उन चार भेदों में पहिली भिक्षा तो संयम में तत्पर हो रहे अतिथि के लिये शुद्ध चित्त से निर्दोष आहार देना है। रत्नत्रय धर्म की वृद्धि के कारण हो रहे पुस्तक, कमण्डलु आदि उपकरण देने चाहिये । आर्यिका के लिये शाटिका वस्त्र देना उचित है । तथा रोग की निवृत्ति के लिये निर्दोष द्रव्य वाला औषध देना चाहिये । प्रतिश्रय का अर्थ यहां वसतिका है । मुनि, आर्यिका या साधुजनों के योग्य निवास स्थान का धर्म की श्रद्धा से दान दिया जाय । स्त्री, पशु, पक्षी, चोर, आदि जीवों द्वारा किये गये सम्बन्ध से रहित हो रही योग्य वसतिका समझ लेनी चाहिये । इस प्रकार कहे गये सात व्रतों से सम्पन्न