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सप्तमोऽध्याय
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शरीर सम्बन्धी संस्कारों के करने का त्याग हो रहा है और धर्म श्रवण, आत्मध्यान, स्वाध्याय, आदि मन एकाग्र हो कर लग रहा है। अतः “उपेत्य वसति तस्मिन्” इन्द्रियों की स्वतन्त्र वृत्ति का संकोच कर शुद्ध आत्मीय स्वरूप में यह जीव निवास करता है। एक बात यह भी है कि आरम्भ परिग्रहों से आकुलता या संक्लेश बढ़ते हैं । उपवास में आरम्भरहित हो जाने से भी आत्म विशुद्धि बढ़ती है ||
भोगपरिभोगसंख्यानं पञ्चविधं त्रसघातप्रमादव हुवधा निष्टानुपसेव्य विषयभेदात् । तत्र मधुमांसं त्रसघातजं तद्विषयं सर्वदा विरमणं विशुद्धिदं मद्यं प्रमादनिमित्तं तद्विषयं च विरमणं संविधेयमन्यथा तदुपसेवनकृतः प्रमादात्सकलवतविलोपप्रसंग: । केतक्यर्जुनपुष्पादिमाल्यं जन्तुप्रायं शृंगवेरमूलकार्द्रहरिद्रानिम्बकुसुमादिकमुपदंशकमनन्तकायव्यपदेशं च बहुवधं तद्विषयं विरमणं नित्यं श्रेयः । श्रावकत्वविशुद्धिहेतुत्वात् । यानवाहनादियद्यस्यानिष्टं तद्विषयं परिभोगविरमणं यावज्जीवं विधेयं । चित्रवस्त्राद्यनुपसेव्यंमस्पमशिष्ट सेव्यत्वात् तदिष्टमपि परित्याज्यं शश्वदेव । ततोऽन्यत्र यथाशक्ति स्वविभवानुरूपं नियतदेशकालतया भोक्तव्यं ।
जैन सिद्धान्त में त्रसों के घात और प्रमादवर्द्धक विषय तथा बहुस्थावरवध एवं अनिष्ट तथैव अनुपसेव्य विषय इन पांच विषयों के भेद से भोगोपभगों की परिसंख्या करना पाँच प्रकार है । बाईस अभक्ष्य केवल इन्हीं का विस्तार कहा जा सकता है। साधारण जीवों का बाईस में नाम भी नहीं है तथा अनिष्ट अनुपसेव्य और मादक पदार्थों के त्याग का भी यथेष्ट वर्णन नहीं है अतः प्राचीन आम्नाय अनुसार अभक्ष्य पाँच ही मानने चाहिये । पाँच उदुंबर, तीन मकार, ओला, विदल, 'रात्रिभोजन, बहुबीजा, बैंगन, कंद मूल, अज्ञातफल, अचार, विष, मांटी, बरफ, तुच्छफल, चलितरस, मक्खन, इन में कुछ पुनरुक्त हैं और कितने ही अभक्ष्य इनमें गिनाये नहीं गये हैं। मांसत्यागवत, मधुत्यागत्रत और मद्यत्यागव्रत के अतीचारों में से या यहाँ वहाँ के अप्रासंगिक कुछ अभक्ष्यों का नाम ले देने से बाईस की संख्या भरी गयी है जो कि अव्याप्ति और अतिप्रसंग दोषों से खाली नहीं है । किन्ही का अनुकरण किया गया दीखता है, आस्तां । उन पाँच अभक्ष्यों में प्रथम मधु और मांस तो बस जीवों के घात से उपजते हैं अतः उन मधु मांस में सर्वदा विरति करना आत्मविशुद्धि को देने वाला है । मद्यं यानी शराब तो प्रमाद का निमित्त है अतः उस मद्य के विषय में हो रहा परित्याग भी भले प्रकार करना चाहिये अन्यथा यानी मद्यको त्यागे बिना उस मद्य के उपसेवन से किये गये प्रमाद से अहिंसा, सत्य आदि सम्पूर्ण व्रतों के विलोप होने का प्रसंग आ जायगा। गुड़, जौ, धाय के फूल, अंगूर, धतूरा, आदि को सड़ा गलाकर बनाया गया मद्य तो असंख्य त्रस जीवों के घात का हेतु भी है । किन्तु प्रासुक निर्जीव बना लिया मद्य भीमादक होने से अभक्ष्य है। जैसे कि सूखी भांग, धतूरा, अहिफेन आदि अभक्ष्य हैं। केतकी (केवड़ा), अर्जुन के फूल आदि की मालायें प्रायः बहुत से त्रस जन्तुओं के अवलम्ब हैं । वहु स्थावर वध भी होता है | अतः केवड़ा आदि के उपभोग का विरमण करना श्रेष्ठ है । तथा सचित्त हो रहे श्रृंगवेर यानी सोंठ, मूलक यानी मूली, गाजर आदि मूल पदार्थ, अदरक, हल्दी, निम्बपुष्प आदिक और उपदंशक कन्दये सब प्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पतियाँ अनन्तकाय जाम को धारती हैं। इनके खाने या वर्तने से बहुत से ( अनन्तानन्त) स्थावर जीवों का वध होता है । अतः गृहस्थ को उनमें आखड़ी कर सर्वदा विरक्ति करना श्रेष्ठ मार्ग है । क्योंकि श्रावकपने की विशुद्धि का हेतु वह बहुवध का त्याग है। गाड़ी, मोटर, रेलगाड़ी आदिक यान पदार्थ और घोड़ा, हाथी, ऊँट आदि वाहन पदार्थ एवं गृह, नदीजल, मिरच आदि जो जो पदार्थ - जिसको अनिष्ट पड़ते हैं या प्रकृति को अनुकूल नहीं हैं उन उन विषयों के परिभाग का जीवन पर्यन्त