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________________ ६१० श्लोक-वार्तिक आत्मा में विशुद्धि विशेष की उत्पत्ति होती है। यहां सामायिक व्रत में कोई प्रश्न उठाता है कि उक्त वार्तिकों में सामायिक को किस प्रकार तीन प्रकार शुद्ध या तीन भेद से विशुद्धि को देने वाला कहा गया है ? बताओ। यों कहने पर आचार्य महाराज समझाये देते हैं कि इतने देश और इतने काल में साम्यभाव करना इस प्रकार नियत कर लिये गये सामायिक में स्थित हो रहे व्रती पुरुष के पूर्व के समान महाव्रत सहितपना समझ लेना चाहिये अर्थात् दिग्वत देशव्रत में जैसे सीमा के बाहर महाव्रतपना है उसी प्रकार नियतदेश नियतकाल तक सामायिक में उद्युक्त हो रहे व्रती के उतने समय तक महाव्रतीपना है, उस सामायिक नामक मोक्षोपयोगी पुरुषार्थ से आत्मा में विशुद्धियां, निर्मलतायें, उपजती हैं क्योंकि सामायिकव्रती के अणुरूप से किये गये और स्थूल रूप से किये गये हिंसा, झूठ आदि सम्पूर्ण पापों की निवृत्ति हो रही है। यहाँ कोई आक्षेप करता है कि तब तो त्रस वधत्याग की अपेक्षा संयत और स्थावर वध के नहीं त्याग की अपेक्षा असंयत हो रहे संयतासंयत गृहस्थ के भी महाव्रत हो जाने के कारण संयम धार लेने का प्रसंग आ जावेगा। आगम में छठे गुणस्थान से ऊपर संयम माना गया है, पांचवें गुणस्थान में संयम नहीं । ग्रंथकार कहते हैं कि यह तो न कहना क्योंकि सर्वसावद्य निवृत्ति स्वरूप सामायिक में स्थित हो रहे उस व्रती के उस संयम का घात करने वाले प्रत्याख्यानावरण कर्म का उदय हो रहा है। इस कारण संयमभाव नहीं कहा जा सकता है। अन्तरंग में प्रत्याख्यानावरण कर्म का अनुदय होने पर और बहिरंग में दिगम्बरदीक्षा, केशलोंच आदि विधि के साथ जब आत्मास्वरूप चिन्तन किया जायगा तभी संयम बन सकता है अतः गृहस्थ के एक देश संयम माना गया है। इस पर कोई पुनः कटाक्ष करता है कि अन्तरंग में यदि प्रत्याख्यानावरण कर्म का उदय हो रहा है तब तो निवृत्ति रूप परिणाम नहीं हो सकते हैं अतः सामायिक में आगूर्ण हो रहे श्रावक के महाव्रतीपना नहीं बन सकता है, जो कि आपने अभी कहा था । आचार्य कहते हैं कि यह तो न कहना क्योंकि अणुव्रती के उपचार से महाव्रतीपना कहा गया है जैसे कि राजा के कुल यानी परिवार में चैत्र यानी विद्यार्थी का सभी स्थानों पर चले जाना कह दिया जाता है। अर्थात् महाराज के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध रख रहा कोई विनीत विद्यार्थी अनेक स्थानों पर पहुंच जाता है या लघुवयस्क उपनय ब्रह्मचारी भिक्षा के लिये अन्तःपुर में भी चला जाता है जहां कि साधारण पुरुष नहीं जा पाते हैं किन्तु स्नानगृह, शयनगृह, अन्तरंग भाण्डागार आदि गुप्तस्थानों पर नहीं जा पाता है। फिर भी बहिरंग लोक उस ब्रह्मचारी को “राजकुल में सर्वत्र इस की गति है" ऐसा व्यवहार कर देते हैं। उसी प्रकार यहां भी अणुव्रती श्रावक को उपचार से महाव्रत धारकपना व्यवहृत है। कः पुनः प्रोषधोपवासो यथाविधीत्युच्यते-स्नानगन्धमाल्यादिविरहितोऽवकाशे शुचाचुपवसेत् इत्युपवासविधिर्विशुद्धिकृत, स्वशरीरसंस्कारकरणत्यागाद्धर्मश्रवणादिसमाहितान्तःकरणत्वात् तस्मिन् वसति निरारम्भत्वाच्च । यहाँ कोई फिर पूछता है कि पाँचवां शील प्रोषधोपवास भला क्या है ? यों जिज्ञासा प्रवर्तने पर बार्तिक में कहे गये और निरुक्ति अनुसार प्राप्त हो चुके प्रोषधोपवास को शास्त्रोक्त विधि अनुसार यों बखाना जाता है, प्रोषधोपवास की विधि इस प्रकार है कि जितेन्द्रिय पुरुष रागवर्द्धक स्नान करना, गन्धमाला पहिरना, भूषण-वस्त्र धारण करना आदि करके विरहित हो कर पवित्र अवकाश स्थल में उपवास मांडे, अथवा साधुओं के निवासस्थल या चैत्यालय एवं अपने घर में न्यारे बने हुये प्रोषधोपवास गृह में धर्म कथा को सुनता सुनाता हुआ या ध्यान करता सन्ता आरम्भ परिग्रह रहित हो रहा श्रावक उपवास करे । इस प्रकार उपवास की विधि है, जो कि परम विशुद्धि को करने वाली है क्यों कि अपने
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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