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________________ ६०६ श्लोक-वार्तिक यिक का निरूपण करते हैं एकपने करके गमन होना समय है । सम् उपसर्ग पूर्वक " अय् गतौ” धातु से समय शब्द बनाया गया है। यहाँ सम् उपसर्ग एकीभाव अर्थ में प्रवर्तता है। जैसे कि चून में घी मिल गया दूध में बूरा एकम एक होकर संगत हो गया है। इन स्थलों पर पर सम् का अर्थ एकम एक मिल जाना है “अय” धतुका अर्थ गमन यानी प्राप्ति हो जाना है । "समता सर्वभूतेषु, संयमे शुभभावना, आ रौद्र परित्यागस्तद्धि सामायिकं व्रतम्” स्वातिरिक्त परद्रव्य को भिन्न समझते हुये औपाधिक विभाव परिणतियों से हटा कर आत्मा की स्वयं में एकपने से प्राप्ति करलेना समय है । द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा से और शरीर वचन मनोंकी क्रियायें स्वरूप पर्यायों को जतानेवाली पर्यायार्थिक नयकी अविवक्षा से मैं अकेला ही आत्मा हूँ इस प्रकार एकपने से जानते रहना समय है । अथवा अहिंसा आदि व्रतों के भेद की अर्पणा करने से आत्मा का सम्पूर्ण सावद्य योगों से निवृत्ति स्वरूप एक निश्चय करना समय है । समय ही सामायिक है यह स्वार्थ में ठणू प्रत्यय कर लिया है । अथवा प्रयोजन अर्थ में भी ठणू प्रत्यय कर लिया जाय पूर्वोक्त समय होना व्रत का प्रयोजन है वह सामायिक है यों सामायिक शब्द साधु बन जाता है "अयू” से घन प्रत्यय कर समीचीन आय को समाय बना - लिया जाय पुनः ठण् प्रत्यय कर भी सामायिक शब्द बन जाता है। शब्द, गंध, आदि के ग्रहण में निरुत्सुक होकर जहाँ पाँचों इन्द्रियाँ स्व में ही निवास करने लग जाती हैं इस कारण यह उपवास है । खाद्य लेह्य, पेय इन चारों प्रकार के आहार का त्याग हो जाना इसका अर्थ है । क्यों कि इन्द्रियां अपने अपने स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण, शब्द, विषयों के प्रति व्यापार नहीं कर रही हैं। प्रोषध यानी अष्टमी, चतुर्दशी इन दो पर्वों में उपवास करना प्रोषधोपवास है । जघन्य आठ प्रहर के उपवासों में भी दो रात्रि और का पूर्ण दिन बारह प्रहर तक चार प्रकार के आहार का त्याग करना पड़ता है, चतुर्दशी या प्रातः काल से नवमी या पन्द्रस के प्रातः काल तक उपवास की प्रतिज्ञा लेता है अतः वह उपवास आठ प्रहर का समझा जाता है यह उपवासी सम्भवतः सातें या तेरस की रात को कुछ गृहार म्भ कर लेवे इस कारण चौदस को प्रातः उपवास माड़ता है । उपेत्य भ्रुज्यत इत्युपभोगः अशनादिः, परित्यज्य इति परिभोगः पुनः पुनर्भुज्यत इत्यर्थः स वस्त्रादिः । परिमाणशब्दः प्रत्येकमुभाभ्यां संबंधनीयः । संयममविराधयन्नततीत्यतिथिः । न विद्यतेस्य तिथिरिति वा तस्मै संविभागः प्रतिश्रयादीनां यथायोगमतिथिसंविभागः । 1 उपेत्य यानी अपने अधीन कर जो एक बार में ही भोग लिया जाता है इस कारण भोजन, पान पुष्पमाला, चन्द्रनलेप आदिक उपभोग पदार्थ हैं । और एक बार भोग के छोड़ कर पुनः उसी को भोगा जाता है इस कारण भूषण आदि परिभोग हैं । पुनः पुनः पदार्थ भोगा जा रहा है यह इस परिभोग का अर्थ है | वे परिभोग वस्त्र, भूषण, पलंग, घोड़ा, गाड़ी, मोटरकार, घर, तम्बू आदिक हैं । एक धनाढ्य राजा एक बार जिस वस्त्र को पहन लेता था उसको दुबारा नहीं पहनता था ऐसी दशा में वस्त्र उसके उपभोग में गिना जायगा परिभोग में नहीं । परिमाण शब्द का दोनों के साथ प्रत्येक प्रत्येक में सम्बन्ध कर लेना चाहिये । उपभोग का परिमाण और परिभोग का परिमाण ये दोनों एक व्रत हैं। “अत सातत्यगमने " धातु से अतिथिशब्द बनाया गया है । व्रतधारण, समितिपालन, कषायनिग्रह, दण्डत्याग, इन्द्रियजय, स्वरूप संयम की नहीं विराधना करता हुआ जो सर्वदा प्रवर्तता है इस कारण वह अतिथि है, अथवा तिथि शब्द के साथ नन् समास कर अतिथि शब्द बनाया जाय। जिस के कोई अष्टमी, चौदस, द्वितीया, पञ्चमी, एकादशी आदि तिथियों का विचार नहीं है अतः वह अतिथि है । उस अतिथि के लिये वसति
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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