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________________ सप्तnistra ફ્રેન્ડ का, शास्त्र, कमण्डलु आदिकों का जो यथायोग्य समीचीन विभाग यानी दान करना है वह अतिथिसंविभागत है । व्रतशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते, सम्पन्नशब्दश्च तेन दिग्विरतिव्रतसम्पन्न इत्यादि योज्यम् । व्रतग्रहणमनर्थकमिति चेत्, उक्तमत्र चोपसर्जनानभिसंबन्धादिति । तत इदमुच्यते इस सूत्र में द्वन्द्वसमास के अन्त में पड़े हुये व्रत शब्द का प्रत्येक के साथ सात पदों के पीछे सम्बन्ध कर लिया जाता है तथा सम्पन्न शब्द का भी प्रत्येक के साथ योग लग रहा है, तिस कारण दिग्विर तिव्रतसम्पन्न, देशविरतिव्रतसम्पन्न इत्यादि योजना कर लेना योग्य है । आदि पद कर लिये गये अनर्थदण्डविरतिव्रतसम्पन्न, सामायिकव्रतसम्पन्न, प्रोषधोपवासव्रतसम्पन्न, उपभोगपरिभोगपरिमाणव्रतसम्पन्न, अतिथि संविभागव्रतसम्पन्न ऐसा उक्त सात व्रतोंवाला भी गृहस्थ होना चाहिये । यहाँ कोई आक्षेप करता है कि इस सूत्र में व्रत शब्द का ग्रहण करना व्यर्थ है । क्योंकि उपरिम सूत्रों से व्रत की अनुवृत्ति हो ही जायगी यों आक्षेप प्रवर्तने पर तो ग्रन्थकार बोलते हैं कि इस विषय में हम उत्तर कह चुके हैं कि उपसर्जन यानी गौण हो चुके पद का पुनः काट छांट कर सम्बन्ध नहीं हो सकता है । “हिंसानृतस्त्येयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिर्व्रतम्” इस सूत्र का व्रत शब्द बहुत दूर पड़ चुका है। तथा व्रतसम्पन्नः इस अर्थ को कहने के लिये वह लक्ष्यभूत स्वतन्त्र व्रत शब्द उपयोगी भी नहीं पड़ता है । “निश्शल्यो व्रती” इस सूत्र में यद्यपि व्रत शब्द है तथापि प्रधानभूत व्रती में वह गौण हो चुका है अतः व्रत शब्द यहां कण्ठोक्त किया गया है। अब तक सूत्रोक्त पदों का विवरण किया जा चुका है । तिस कारण इसको वार्तिकों द्वारा यों कहा जा रहा है कि दिग्देशानर्थदण्डेभ्यो विरतिर्या विशुद्धिकृत् । सामायिकं त्रिधा शुद्ध ं त्रिकालं यदुदाहृतं ॥१॥ यः प्रोषधोपवासश्च यथाविधि निवेदितः । परिमाणं च यत्स्वस्योपभोगपरिभोगयोः ॥ २॥ आहारभेषजावास पुस्तवस्त्रादिगोचरः । संविभागो व्रतं यत्स्याद्योग्यायातिथये स्वयं ॥३॥ तत्संपन्नश्च निश्चेयोऽ गारीति द्वादशोदिताः । दीक्षाभेदा गृहस्थस्य ते सम्यक्त्वपुरःसराः ॥४॥ दिशाओं, देशों, और अनर्थदण्डों से जो विरति है वह आत्मा की विशुद्धि को करने वाली है । और आत्मविशुद्धि को करने वाला तीनों कालों में शुद्ध किया गया तीन प्रकार जो सामायिक कहा गया है वह चौथा व्रत है । एवं शास्त्रोक्त विधिका अतिक्रमण नहीं कर जो प्रोषध में उपवास होता है वह प्रोषधोपवास समझा दिया गया है । तथा अपने उपभोग और परिभोग पदार्थों का जो परिमाण करना है। वह उपभोगपरिभोगपरिमाण नाम का छठा शील है । सम्यग्दृष्टि, अणुव्रती, महीव्रती आदि योग्यतावाले अतिथि के लिये जो स्वयं अपने हाथों से आहार, औषधि, निवास स्थान, पुस्तक, वस्त्र, कमण्डलु आदि यथायोग्य विषयों में हो रहा समीचीन विभाग करना है वह अतिथिसंविभाग व्रत है । उन अहिंसादि पाँच व्रतों से और इन सात व्रतों (शीलों) से भी सम्पन्न हो रहे अगारी का निश्चय कर लेना चाहिये । इस प्रकार ७७
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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