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सप्तमोऽध्याय
६०५ - आकाशप्रदेशश्रेणी दिक्, न पुनद्रव्यान्तरं तस्य निरस्तत्वात् । आदित्यादिगतिविभक्तस्तद्भदः पूर्वादिर्दशधा । ग्रामादीनामवधृतपरिमाणप्रदेशो देशः । उपकारात्यये पापादाननिमित्तमनर्थदण्डः विरतिशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते । विरत्यग्रहणमधिकारादिति चेन्न । उपसर्जनानभिसंबंधत्वात् ।
अखण्ड आकाश में परमाणु के नाप से न्यारे न्यारे विभक्त गढ़ लिये गये प्रदेशों की पंक्ति को दिशा कहते हैं। किन्तु फिर वैशेषिकों के मत समान कोई दिशा निराला द्रव्य नहीं है। उस दिशा के द्रव्यान्तरपने का निराकरण किया जा चुका है। अर्थात् वैशेषिकों ने संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग इन पांच गुणों वाले दिशा द्रव्य को स्वतन्त्रतया नौ द्रव्यों में गिनाया है। किन्तु सुदर्शन मेरु की जड़ से पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊर्ध्व, अधः की ओर कल्पित कर ली गयी सूधी आकाश प्रदेश श्रेणी के अतिरिक्त कोई दिशा द्रव्य नहीं ठहरता है । सहारनपुर से श्री सम्मेद शिखरजी तक की पूर्व दिशा ही कलकत्ता वालों के लिये पश्चिम दिशा बन जाती है। जम्बू द्वीप के सभी स्थानों से सुदर्शन मेरु पर्वत उत्तर में पड़ता है। इस ढंग से दिशाओं में आपेक्षिक परिवर्तन होता देखा जा रहा है। ऐसी आकाश द्रव्य में कल्पित कर ली गयी दिशायें या विदिशायें कोई स्वतन्त्र द्रव्य नहीं हैं। सूर्य का उदय होना, सूर्य का अस्त हो जाना इस से नाप ली गयी सूर्य चन्द्र आदि की गति करके उस दिशा के भेद विभाग को प्राप्त हो रहे हैं। पूर्वा आदि यानी पूर्वदिशा, दक्षिणदिशा, पश्चिमदिशा, उत्तरदिशा, ऊर्ध्वदिशा, अधोदिशा, ईशानदिशा, आग्नेयदिशा, नैऋत्यदिशा, वायव्यदिशा यो दश प्रकार की वह दिशा है । ध्रुव तारे से भी उक्त दिशा का परिज्ञान कर पुनः चारों दिशाओं की परिच्छित्ति कर ली जाती है । नियत परिमाण वाले ग्राम, नगर, घर, नदी, आदिकों का प्रदेश तो देश कहा जाता है । कुछ भी उपकार नहीं करते हुये मात्र पापों को ग्रहण करने का निमित्त हो रहा पदार्थ अनर्थदण्ड है। दिशश्च, देशाश्च, अनर्थदण्डाश्च यों द्वन्द्वसमास कर पुनः दिग्देशानर्थदण्डेभ्यो विरतिः। यह पञ्च भी तत्पुरुष समास कर लिया जाय, तीनों पदों में हुये द्वंद्व के अन्त में पड़े हुये विरति शब्द का प्रत्येक पद के साथ पिछली ओर सम्बन्ध कर लिया जाता है। यों पहिले के तीन व्रतों के नाम दिग्विरति, देशविरति और अनर्थदण्डविरति हो जाते हैं। यहाँ कोई शंका करता है कि उक्त सूत्र में विरति पद का ग्रहण नहीं करना चाहिये क्योंकि "हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिव्रतम्" इस सूत्र का अधिकार चला आ रहा होने से विरति शब्द की अनुवृत्ति हो जाती है यों विरति का ग्रहण करना व्यर्थ पड़ता है। ग्रन्थकार कहते हैं कि यों तो न कहना क्योंकि उपसर्जन हो रहे दिग्देश, और अनर्थपदों के साथ उस विरति शब्द का सम्बन्ध नहीं हो सकता है अर्थात् “दिग्देशा" आदि सूत्र में सम्पन्नः पर्यन्त एक समसित पद है। पूरे पद के साथ तो विरति शब्द की अनुवृत्ति की जा सकती थी किन्तु गौण हो रहे केवल एक देश के साथ अधिकृत पद को बीच ही में नहीं जोड़ा जा सकता है। तिस कारण सूत्रकार को पुनः विरति शब्द का कण्ठोक्त ग्रहण करना पड़ता है।
एकत्वेन गमनं समयः, एकोऽहमात्मेति प्रतिपत्तिार्थादेशात् कायवाङ्मनःकर्म पर्यायार्थानर्पणात्, सर्वसावद्ययोगनिवृत्त्येकनिश्चयनं वा व्रतभेदार्पणात, समय एव सामयिकं समयः प्रयोजनमस्येति वा । उपेत्य स्वस्मिन् वसंतींद्रियाणीत्युपवासः । स्वविषयं प्रत्यव्याप्तत्वात् प्रोषधे पर्वण्युपवासः प्रोषधोपवासः ।
तीन गुणव्रतों का विवरण कर दिया है अब आचार्य महाराज शिक्षाव्रतों में से पहिले सामा